Monday, October 20, 2008

पप्पू कांट डांस साला...

ये पप्पू कौन है, जिसने गानों में एड में अपनी जगह बनाई है, ये समाज की उस पांत का आदमी है, जिसकी खिल्ली हर जगह उडाई जाती है...

आजकल एक गाना काफी हिट हुआ है। पप्पू कांट डांस साला... आपको याद ही होगा कि कुछ महीनों पहले कैडबरी के एड में अमिताभ जी पप्पू पास हो गया गा रहे थए। सवाल ये है कि ये पप्पू है कौन, जिसे नाचना नहीं आता और जो पढ़ने-लिखने में भी फिसड्डी है।

क्लास में पिछली बैंच में बैठने वाले लड़के जिनका ध्यान पढाई में कम लगता है, कुछ-कुछ तारे ज़मी पर के ईशान अवस्थी जैसा लड़का पप्पू ही है। लेकिन ज़रूरी नही कि आर्थिक रुप से वह कमजोर ही हो। गाने में तो साफ लिखा है ना कि पप्पू के मुंह में चांदी की चमची है, और वह गुच्ची के परफ्यूम इस्तेमाल करता है। वह गिटार बजाता है। पप्पू किशोर समाज का वह तबका है जो न उत्तर पुस्तिकांओं के ज़रिए परीक्षक को खुश कर पाता है और ना उनमें वो नाचने जैसी सामाजिक गतिविधियों में कामयाब है।

दरअसल पप्पू मुंबई गया हुआ बिहारी है। यह वह बिहारी है जो असम, पंजाब और दिल्ली में स्थानीय लोगों के कोप का शिकार होते हैं। पप्पू वह है जो तैयारी तो सिविल सेवाओं की करता है लेकिन नेवी से लेकर तटरक्षक और बीएसआरबी की परीक्षाओं में शरीक होता है--इस उम्मीद में कि पप्पू को एक अदद नौकरी तो मिल ही जाएगी।

सवाल ये है कि पिछली पांत में बैठने वाले इन पप्पुओं के लिए हम क्या कर रहे हैं। गांव के पप्पू पीने के पानी और चिकित्सा की सुविधाओं से महरुम हैं। दरअसल पप्पू क्रिकेट टीम का बारहवां खिलाड़ी है जो मैदान में पानी ढोने को अभिशप्त है। इस पप्पू के लिए विकास के फ्लाई ओवर पर चलने केलिए कोई रास्ता नहीं है, कूद कर सड़क के पार हो जाओ और किसी भी चलती गाड़ी के नीचे आने को मजबूर रहो, क्यों कि पप्पू कांट वाक साला। ये साला पप्पू अंग्रेजी नहीं जानता। उसे पिज्जा की बजाय रोटी अच्छी लगती है, नल का पानी पीता है।

आइए इस दीवाली हम सब पप्पू के पास होने में कैडबरी खाएँ।

यही तो बाजारवाद है

जेट एयरवेज कमॆचारियो के निकाले जाने से बाजार के लोगो के ही प्राण पखेरू उड़ गए । शायद किसी ने सोचा नही होगा कि ऐसी स्थिति का सामना जेट एयरवेज के कमॆचारियो को करना पड़ेगा । बाजार के पैरोकार ही बाजार में भीख मांगते नजर आए ।

कल तक लोगो को पैसे की कीमत और अपने मांडलिंग के जरिए आम लोगो को लुभाने वाले ये कमॆचारी इस कदर अपनी दलील देते नजर आए । ऐसा पहले कभी सोचा नही गया था । एक क्षण में ही पता चल गया कि बाजार क्या होता है । खैर अब भारतीय भिखारियो को भीख मांगने में शमॆ महसूस नही होगी । दरअसल आथिॆक मंदी की मार से कोई अछूता नही है । समाजवाद का धुर-विरोधी अमेरिका समाजवाद की गोद में जाने को तैयार है । शायद यह समाजवाद की जीत भी है ।

कल तक निजीकरण का हवाला देने वाला अमेरिका बाजार के विफल होने के बाद सरकार की शरण में आ गिरा है । अब अमेरिका के अनेक वित्तीय संस्थानो में बाजार का पैसा नही बल्कि सरकार का पैसा लगा होगा । यानी अथॆव्यवस्था को नियंत्रित करने वाली उंचाईयों पर बाजार का नही सरकार का कब्जा होगा । औऱ यही तो समाजवादी व्यवस्था में होता है । आज स्थिति यह है कि जो अथॆव्यवस्ता पर ज्यादा आधारित है वह उतना ही ज्यादा संकट में है । जिसका असर न केवल अमेरिका बल्कि भारत में भी दिख रहा है । भारत का तकदीर इस मायने में अच्छा है कि यहां पूणॆ ऱूप से निजीकरण सफल नही हो पाया है बरना जेट एयरवेज जैसे कई कम्पनियो के कमॆचारी सड़क पर गुहार लगाते मिलते । औऱ अपनी चमक पर स्व्यं पदाॆ डालने की कोशिश करते । यही तो बाजारवाद है ।

(धीरज कुमार नवोदित पत्रकार हैं, उनकी टिप्पणी को हम प्रकाशित कर रहे हैं)

Saturday, October 18, 2008

अच्छी है शूट ऑन साइट, चलेगी कर्ज

पौराणिक गाथाओं से बाहर निकालेगी चींटी-चींटी बैंग-बैंग

हम पहले से ही कर्ज़ (सुभाष घई वाली) के बारे में जानते हैं। तीन दशकों के बाद भी फिल्म लोगों को याद है यह पुराने वाले कर्ज की खासियत ही कही जाएगी। सुभाष घई ने हॉलिवुड की रिइनकार्नेशन ऑफ़ पीटर प्राउड का मुंबइय़ा संस्करण बडी़ खूबसूरती से तैयार किया था और फिल्म का कारोबार भी ठीक रहा था। स बार भी सतीश कोशिख ने घई की लीक पर चलना ही ठीक समझा है, और एक हद तक कामयाब भी रहे हैं।


लेकिन तमाम बातों के बावजूद पुराने कर्ज़ से नए कर्ज़ की तुलना हो रही है। हिमेश-ऋषि, उर्मिला-सिमी हर स्तर पर तुलना की गुंजाइश है। संगीत के सत्र पर भी लक्ष्मी-प्यारे बनाम हिमेश। हिमेश तीन मोर्चे पर हैं, अदाकीर, गायिकी ौर संगीत। निर्देशक सतीश कौशिक ने कर्ज़ में कहानी के स्तर पर कुछ ट्विस्ट दिया तो है, लेकिन फिल्म मे सबसे अहम बात है हिमेश रेशमिया की अदाकारी।


पिछली बार यानी आपका सुरुर में हिमेश ने खुद का किरदार किया था , लेकिन कर्ज मे उन्हें मोंटी का किरदार निभाना था और आप शायद अंदाजा भी न लगा पाएं वे अदाकारी के लिहाज से खरे उतरे हैं। मुकाबला करने वालो और कला पक्ष पर चिंतित होने वालों को ये जानना चाहिए कि ये मसाला फिल्म है। क्राफ्ट की उम्मीद करना बेकार है।


पुनर्जन्म की अविश्वनीय कहानी पर आधारित फिल्म में कला के लिहाज से और फिल्मी क्राफ्ट के हिसाब से कुछ भी उल्लेखऩीय नहीं है लेकिन लोकप्रिय संगीत और संपूर्ण मनोरंजन की वजह से फिल्म बडी़ हिट हो सकती है। जनता के बीच हिमेश की लोकप्रियता का फायदा फइल्म को मिलेगा, फिल्म का ठीक संगीत भी प्लस पॉइंट है। लेकिन पिछले सप्ताह की फिल्मों का बॉक्स ऑफिस पर घटिया औरगया-गुजरा प्रदर्शन कर्ज के लिए राहें खोल सकता है।


वैसे मुझे बड़ा ताज्जुब होता है कि क्यों लोग हिमेश के पीछे पड़े हुए हैं। मानता हूं कि न वह चोटी के संगीतकार गायक या अदाकार नहीं है। लेकिन जनता का एक बड़ा तबका उन्हें पसंद करता है। और जनता की पसंद पर अपरनी पसंद थोपने का अधिकार किसी कथित समीक्षक को नही है। कला के इन महान पुजारियों ने तो पिछली कर्ज को भी फ्लॉप करार दे दिया था। लेकिन रिजल्ट क्या हुआ था आप सबको पता है। वैसे, तय ये है कि फिल्म को हिमेश अपने कंधे पर ढो लेंगे।


रिलीज़ हुई दूसरी फिल्म है शूट ऑन साइट। निर्देशक जगमोहन मूंदड़ा ने फिल्म में नसीरुद्दीन शाह ओम पुरी और गुलशन ग्रोवर जैसे मंझे हुए कलाकारों को कास्ट किया है, ऐसे में एक्टिंग के लिहाज से निश्चिंत हो जाइए।


ये फिल्म लंदन में हुए हमले पर आधारित है, फिल्म में हमले के बाद स्कॉटलैंड यार्ड के मुस्लिम पुलिस अधिकारी बने नसीर की जिदगी में आई उथल-पुथल को दिखाया गया है। निर्देशक जगमोहन मूंदड़ा इससे पहले भी सामाजिक विषयों पर फिल्म बनाने के लिए जाने जाते हैं। शूट ऑन साइट कुल मिलाकर फिल्म तो अच्छी है लेकिन बॉक्स ऑफिस पर कुछ कर पाएगी इसमें संदेह है।


रिलीज़ हुई तीसरी फिल्म है एक एनिमेशन फिल्म चीटी-चींटी बैंग-बैंग। फिल्म को निलॉय कुमार दे ने निर्देशित किया है और फिल्म में आशीष विद्यार्थी, अंजन ॽीवास्तव, महेश माजरेकर और असरानी ने अपनी आवाजे दी हैं।


पिल्म का टारगेट ऑडियंस बच्चे ही हैं, लेकिन बड़ो में पसंद की जा सकती है। कम से कम भारत में एनिमेशन फिल्मों के पौराणिक गाथाओं से बाहर निकलने की अच्छी शुरुआत है।


मंजीत ठाकुर

Friday, October 3, 2008

इस हफ्ते की फिल्में- द्रोण और किडनैप

शुक्रवार की बजाय गुरुवार को रिलीज़ हुई फिल्म द्रोण कई मायनों में एक बडी़ फिल्म है। बडे़ सितारे, बडा़ बैनर, स्पेशल इफैक्ट और विॾापन पर बडा़ खर्च...फिल्म से उम्मीदें भी बडी़ हैं.. लेकिन इसके रिजल्ट कितने बड़े होंगे यह अभी साफ होना बाकी है।
बॉलिवुड में फैंटेसी या एडवेंचर फिल्में कम ही बनती हैं लेकिन निर्देशक गोल्डी बहल की द्रोण उस कमी को एक हद तक पूरा करती है। द्रोण को आप स्टोरी लाईन की बजाय बेहतरीन दृश्यों के लिए कुछ दिनों तक ज़रूर याद रखेंगे।
फिल्म के लेखक फंतासी और सुपर हीरो फिल्म बनाने के मसले पर उलझ गए लगते हैं। सुपर हीरो यानी छोटे बच्चन को अधिक ताकतवर दिखाने के लिए खलनायक का भी ताकतवर होना जरुरी है, लेकिन फिल्म मंे के के मेनन खलनायक कम विदूषक ज्यादा लगे हैं। फिल्म की हीरोईन प्रियंका भी बोर करती हैं राहत की बात ये है कि अभिषेक बच्चन ने अपना किरदार संजीदगी से निभाया है।
फिल्म के गाने वैभव मोदी ने लिखे हैं और गाने अच्चे बन पड़े हैँ।
द्रोण एक औसत फिल्म है और पब्लिसिटी की वजह से कमाई तो कर लेगी लेकिन फिल्म बहुत दिनों तक जनता-जनार्दन के दिलो-दिमाग़ पर छाई रहेगी इसमें संदेह है।
रिलीज़ हुई दूसरी फिल्म है किडनैप। फिल्म के निर्देशक हैं संजय गढ़वी.. धूम और धूम टू जैसी फिल्मों के वजह से इनसे बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन किडनैप में इन्होंने पूरी तरह निराश किया है।
फिल्म एक लड़के की बदले की कहानी है, और बॉलिवुड के लिहाज से इस कहानी में बहुत संभावनाएं थीँ, लेकिन लेखक शिवानी बथिजा इसे भुना नहीं पाईँ। प्लॉट के लिहाज से फिल्म संजय दत्त की ही ज़िंदा के करीब नजर आ रही है। फिल्म बढिया शुरुआत के बाद बिखरती चली जाती है। संजय दत्त अदाकारी में असहज दिखे हैं और मीनिषा लांबा को मिसकास्ट किया गया है। वह न तो सॼह साल की लड़की दिखती है और न ही उनके चेहरे पर अपहृत होने के बाद का डर उभर पाया है।
लेकिन इमरान खान की अदाकारी ठंडे हवा की झोंके की तरह ताज़गी देती है। लेकिन अकेले उनकी एक्टिंग फिल्म को बॉक्स ऑक्स ऑफिस पर नहीं खींच पाएगी। इमरान के प्रदर्शन को छोड़ दें तो बाकी की फिल्म निराश करती है।

राज़धानी के ड्राइवर को सलाम

कुछ अरसा हुआ मुझे गोवा जाना था। त्रिवेंद्रम राज़धानी में लंबी यात्रा से बोर भी हो रहा था और उसका एक तरह से लुत्फ भी ले रहा था। रत्नागरी के बाद रेल फिर चल पड़ी... राज़धानी एक्सप्रैस भी कोंकण रेल के उस हिस्से का मजा सेती गुजर रही थी। अचानक हुआ ये कि गाड़ी रुक गई।
हमारे अंदर का युवा इंसान और रिपोर्टर जाग गया, हमने गेट से बाहर झांका और गार्ड से पूछताछ की तो पता चला, रेल ट्रैक के बगल में कोई आदमी गिरा पड़ा था। हम भी वहां पहुंच गए, देखा एक बुजुर्ग थे। बाद मे पता चला कि पहले गई गोवा एक्सप्रैस में से गिर पड़े थे। बहरहाल, उन्हे गाड़ी में उठाकर अगले स्टेशन तक खबर पहुंचा दी गई। गोवा एक्सप्रैस उनका इंतजार करती रही थी। बुजुर्गवारक वैसे तो बेहौश थे, लेकिन कोई जानलेवा चोट नहीं आई थी।
मुझे हैरत इस बात की हुई कि राज़धानी जैसी एलीट कही जाने वाली गाड़ी एक आम आदमी के लिए रोक दी गी। ड्राइवर की नज़र की दाद देनी होगी कि उसकी निगाह उन पर पड़ गई। सबसे बडी बात ये कि ऐसा इंसानियत भरा कारनामा दिल्ली जैसे महानगर मंअभी तक देक नहीं पाया। आज याद आई है तो राज़धानी के उस ड्राइवर को सलाम करता हूं।

Thursday, October 2, 2008

मेरी गांधीगीरी...


गांधी जी की जय। मेरी भी। गांधी जी का जन्मदिन सारे देश ने मनाया। लोगों ने भाषण दिए। मेरी मां भी मेरा जन्मदिन मनाती है। खीर और गाजर का हलवा हर हिंदी फिल्म के नायक की तरह मुझे भी पसंद है, सो वह बना देती है। कहती है, निठल्ले ठूंस ले। मैं कहता हूं कि अम्मां, अब मैं निठल्ला नहीं ठहरा॥ काम करता हूं। लेकिन दूसरों की तरह मेरी मां भी मेरे काम को अहमियत नहीं देती। बहरहाल, मेरी गांधीगीरी वहीं से शुरु होती है। मैं सारे का सारा मयगाली के, खा जाता हूं। बिना शिकायत किए।


तो गांधी की इस जयंती पर मैं अपनी गांधीगिरी चालू रखने की कसम खाता हूं। मैं कसम खाता हूं कि मैं हमेशा दूसरे चैनलों के भूत-प्रेत, नाग-नागिन, हनुमान के आंसू, भीम की शर्ट-पैंट, नालियों में हिरे-पड़े बच्चों, मियां-बीवी की बेडरूम में होने वाली लड़ाईयों की, झांसी की रानी के पुनर्जन्म की कहानियों पर आधारित आधा घंटा खिंचाऊं घंटा टाइफ प्रोग्रामों की न सिर्फ निंदा करूंगा, बल्कि खिल्ली उड़ाने की हद तक करूंगा। साथ मन ही मन मैं उस चैनल में काम करने की जुगत भिडा़ता रहूंगा। मैं हमेशा उन्हें यह कह कर कोसूंगा कि चूतियों ने पत्रकारिता का तिया-पांचा कर रखा है। लेकिन मैं हर महीने अपना सीवी उनके चैनल हैड को फॉरवर्ड किया करूंगा।


मैं ये भी कसम खाता हूं कि रॉयटर्स से आने वाले फीड में शकीरा और ब्रिटनी स्पियर्स जासी मादक मादाओं के गुदाज़ बदन का, उनके मांसल बदन को, सिर्फ एडिट बे में छिपकर लॉग किया करूंगा, गो कि यह हमारे चैनल में दिखाया नहीं जा सकता। बाद में मैं सीना ठोंक कर कह सकता हूं कि बहन॥चो.. हम उल्टा-सीधा नहीं दिखाते।बाद में जब मैं सीनियर हो जाऊंगा, तो अपने जूनियरों को यह कह कर हड़काऊंगा कि जो कवरेज जो रिपोर्ट हमने की तुम क्या तुम्हारे पुरखे भी नहीं कर सकते। अगर जूनियर २३-२४ साल का हुआ तो उसे यह कहूंगा कि जितनी तुम्हारी उमर नहीं, उतने दिनों से तो मैं मीडिया में कवरेज कर रहा हूं।

मैं कोशिश करूंगा कि सभी मंत्रियों, सभासदो, पार्षदों, सांसदों, विधायकों, उन सबकी पत्नियों, सालों, बहनोईयों के चरण रज का वंदन किया करूं, ताकि वक्त आने पर वो मुझे बाईट दे दिया करें।


मैं ये भी कसम खाता हूं कि कभी किसी प्रकाश झा की तुलना राम गोपाल वर्मा से करके अपनी भद नही पिटवाऊंगा। ताकि दोनों के प्रशंसक मुझसे नाराज़ न हों। और मेरी हर जगह पैठ बनी रहे। आगे से मैं जो भी लिखूंगा, लोगों को खुश करने के लिए लिखूंगा। किसी को नाराज़ नहीं करूंगा। हां, मशहूर होने के लिए रचनाएं ( अच्छी हो या बुरी, कोई फरक नहीं पड़ता) चुरा कर छपवाऊंगा, क्योकि कि पुरस्कार लोगों को मशहूर बनाता है। इसके लिए मैं हिंदी का क्षेत्रीय भाषाई होने का पुरस्कार भी बिना विरोध किए ले लूंगा, क्योंकि मुझे तो मशहूर बनना है।


हां एक और आइडिया है.. सार्वजनिक मंचो पर और नोबेल प्राप्त सर विदिया की तरह बापू की बुराई करके भी मैं मशहूर हो सकता हूं। तो आप मेरे मशहूर होने का इंतज़ार कीजिए। मैं किसी अच्छी रचना की जुगाड़ में हूं।