Sunday, November 30, 2008

सांप्रदायिक आतंक

क्या आतंक की दो परिभाषाएं हैं कम-से-कम धर्म के हिसाब से..? सबसे तेज़ चैनल के कार्यक्रम सीधी बात में आर आर पाटिल से सवाल पूछते वक्त महान पत्रकार के मन में क्या रहा होगा? पाटिल के जवाब का पता नहीं, पर सवाल कुछ यूं था कि आपने एटीएस का ७० फीसद हिंदू आतंकवादियों के पीछ लगा दिया लेकिन बाहरी आतंकियो के लिए महज ३० फीसद एटीएस लगाया?

मित्रों, हिंदू आतंकवाद क्या है? अगर मुस्लिम आतंकवाद मिथ्या है तो हि्ंदू आतंकवाद भी कुछ लफ्फाजों का जबानी जमा-खर्च ही है। पाकिस्तान के आतंकवादी तयशुदा ढंग से मुसलमान ही होगे लेकिन वे बाहरी क्यों कहे जा रहे हैं? मुसलमान क्यों नहीं। ठीक है और हम भी मानते हैं कि सभी मुसलमान आतंकी नहीं है और आतंक का किसी भी धर्म से कोई लेना-देना नहीं होता। ऐसे मे हिंदू आतंकवाद क्या बला है भई?

आइए हम सब आतंकवाद के खिलाफ फतवा जारी करें।

Thursday, November 27, 2008

ओरु पेन्नम रंदानम यानी अ क्लाइमेट फॉर क्राइंम

ओरु पेन्नम रंदानम यानी अ क्लाइमेट फॉर क्राइंम अडूर गोपाल कृष्णन की एक बेहतरीन फिल्म है। ११५ मिनट की इस फिल्म की कहानी दूसरे विश्वयुद्ध के आसपास बुनी गई है। लडाई में उलझे ब्रिटेन की मुश्किलों की छाया भारत पर भी पड़ने लगती है, और खाने पीने से लेकर रोज़मर्रा की चीज़ो की कमी होने लगती है।

इन्ही हालातों में बेरोज़गारी बढ़ जाती है, वंचित कमजोर तबके के पास इन बुनियादी चीजो और जिंदगी बचाने के लिए अपराध की ओर मुड़ना ही एक आखिरी रास्ता बचा रहता है। कुलीन और शालीन कहा जाने वाले तबके के पास भी कुलीनता छोड़ने के सिवा कोई और चारा नहीं होता।
पिछले साल फिल्म समारोह में दिखाई गई अडूर की ही फिल्म नालू पेन्नूगल में भी चार अलग-अलग सामाजिक पृष्ठभूमि की महिलाओं की चार कहानियां थीं, इस फिल्म मे भी एक साथ चार कहानियां चलती है।
पहली कहानी एक चोर की है जिसमें उसका बेटा अपनी मां से उसके बुरे रास्ते को छुड़वाने का वायदा करता है लेकिन दो साल के बाद वह देखता है कि उसाक पिता ग़रीबी की वजह से ही अपनी पुरानी आदत पर वापस आ गया है।
दूसीर कहानी एक पुलिस वाले की है , जो अपना अपराध एक गरीब रिक्शेवाले पर डाल देता है। रिक्शेवाले पर चोरी का आरोप लगता है लेकिन ्गर वह अपने लिए वकील करता है तो उसकी सारी जिंदगी की कमाई उसी में खत्म हो जाएगी, और अगर वह अपराध कुबूल करता है तो उसे दस दिनों के लिए जेल तो जाना ही होगा।
तीसरी कहानी एक छात्र और उसके घर में काम करने वाली लड़की के प्रेम की कहानी है। सामाजिक बंधनों और अपनी चिंताओं से लड़ने की यह कशमकश बेहतरीन हिस्सा है फिल्म का।
चौथी कहानी में एक खूबसूरत महिला की कहानी है, जिससे हर कोई शादी करना चाहता है लेकिन उसकी कहानी में प्रेम त्रिकोण बन जाता है।
पूरी फिल्म में कैमरा शानदार तरीके से वही दिखाता है, जिसकी कहानी को ज़रूरत होती है। ज्यादा मूवमेंट किए बिना कैमरे में यथार्थवादी तरीके से किस्सागोई की गई है। अडूर का समांतर सिनेमा सोकॉल्ड बड़े फिल्मकारों की सोच से मीलों आगे है। और जो लोग अच्छी फिल्मों के दर्शकों के टोटे का रोना रोते हैं, उनके लिए तो अडूर एक सबक हैं।

Sunday, November 23, 2008

गोवा में तीसरा साल

गोवा में लगातार तीसरे साल आ गया हूे। फिल्म समारोह के लिए । २२ से शुरु हो गया है। लेकिन कोई जगमग नहीं है। खाली-खाली सा मामला। चुकी हुई फिल्मे और चूके हुए फिल्मकार। खीजे हुए स्थानीय लोग और बदहवास बाहरी, यही नज़ारा है अभी पणजी में।

गोवा आने के अनुभव और यहां का अनुभव दोनों बिलकुल विरोधाभासी है..वो एक शेर है ना.. बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का , जो काटा तो क़तरा-ए-ख़ूं न निकला। उसी तर्ज पर फिल्म समारोह की शोरगुल बहुत सुनते-सुनते उसका उद्घाटन भी हो गया है। लेकिन बड़े दुख से कहना पड़ रहा है कि इस बार मीडिया भी कोई रुचि नहीं ले रहा। और ले भी क्यों, आयोजको ने मीडिया को तरजीह देने या फिर उनके लिए कुछ सुविधाएं जुटाने को कोई तवज्जो नहींदी। औक अंतरराष्ट्रीय होने का ठप्पा लगा ये समारोह किसी भी तरह से उस स्तर का तो नहीं ही है। गोवा आ आयोजको ने इस े पूरी तरह से लोकल बना कर रख दिया है।

तीसरा साल है लगातार जब फिल्म समारोह में आया हूं लेकिन अभी तक के प्रदर्शन से निराश हूँ।

फिल्म समारोह में बिमल रॉय की याद

बिमल राय दो बीघा जमीन, बंदिनी और सुजाता जैसी कालजयी फिल्मों के निर्देशक बिमल राय हिंदी सिनेमा में रोमांटिक यथार्थवाद के जनक थे। यूरोपीय नवयथार्थवादी फ़िल्मों से प्रेरित बिमल राय की फ़िल्मों की छाप है.


12 जुलाई 1909 को ढाका में जन्मे बिमल दा की फिल्मों में एंट्री बतौर कैमरामैन हुई। वह कैमरामैन के तौर पर न्यू थिएटर्स प्राइवेट लिमिटेड में शामिल हुए। इस दौरान उन्होंने 1935 में प्रदर्शित हुई पीसी बरुआ की फिल्म देवदास और 1937 में प्रदर्शित मुक्ति के लिए फोटोग्राफी की।

लेकिन बिमलदा ने बहुत अधिक समय तक कैमरामैन के तौर पर काम नहीं किया और 1944 में उन्होंने उदयेर पौथे नाम की बांग्ला फिल्म का निर्देशन किया। बतौर निर्देशक यह उनकी पहली फिल्म थी। इस फिल्म का हिंदी रीमेक बाद में हमराही नाम से 1945 में प्रदर्शित हुआ।

न्यू थिएटर के पतन के बाद बिमल दा मुंबई आ गए और यहां उन्होंने 1952 में बांबे टाकीज के लिए मां [1952] का निर्देशन किया। लेकिन बिमल दा को असली कामयाबी दो बीघा जमीन से मिली। इटली के नव-यथार्थवादी सिनेमा से प्रेरित बिमल दा की दो बीघा जमीन एक ऐसे गरीब किसान की कहानी है जो शहर चला आता है। शहर आकर वह रिक्शा खींचकर रुपया कमाता है ताकि वह रेहन पड़ी जमीन को छुड़ा सके। गरीब किसान और रिक्शा चालक की भूमिका में बलराज साहनी ने जान डाल दी है।
व्यावसायिक तौर पर दो बीघा जमीन भले ही कुछ खास सफल नहीं रही लेकिन इस फिल्म ने बिमल दा की अंतरराष्ट्रीय पहचान स्थापित कर दी। इस फिल्म के लिए उन्होंने कान और कार्लोवी वैरी फिल्म समारोह में पुरस्कार जीता।

बांग्ला साहित्यकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर फिल्में बनाने के मामले में बिमल दा सबसे आगे रहे। उन्होंने परिणीता के समेत बिराज बहू और देवदास जैसे उपन्यासों पर भी फिल्में बनाईँ। देवदास ने तो अभिनय सम्राट दिलीप कुमार को रातोंरात ट्रेजेडी किंग बना दिया।

इसके बाद बिमल राय ने 1958 में पुनर्जन्म पर आधारित मधुमति तथा यहूदी फिल्म का निर्देशन किया। दोनों ही फिल्में जबर्दस्त हिट रहीं। संगीतकार सलिल चौधरी ने मधुमति के लिए ऐसी धुन रचीं कि उसके गाने आज भी लोगों की जुबां पर हैं।

बिमल दा की सर्वाधिक यादगार फिल्मों में बंदिनी का नाम लिया जा सकता है। यह फिल्म हत्या के आरोप में जेल में बंद एक महिला की कहानी है। इस फिल्म में अभिनेत्री नूतन ने शानदार भूमिका अदा की है। इस फिल्म के एक गीत मेरा गोरा रंग लई से आज के मशहूर गीतकार और फिल्मकार गुलज़ार के फिल्मी जीवन की शुरुआत मानी जाती है। बिमल दा की खासियत ही देखिए कि गीतकार शैलेंद्र से उन्होंने यभाई बहन पर बंदिनी में ए क ऐसा गीत डलवाया जिसके बोल आज भी दिल को छू जाते हैं।

यह गीत शुभा खोटे पर फ़िल्‍माया गया था। इस गाने का अंतरा कितना भावुक है देखिए- (('बैरन जवानी ने छीने खिलौने, और मेरी गुड़िया चुराई।.....।' ))

बिमल दा का सफर इसके बाद तो और भी ज़ोर पकड़ता गया, छूआछूत की समस्या पर आधारित सुजाता में एक बार फिर उन्होंने नूतन को अभिनेत्री के तौर पर लिया।
बिमल राय ने 1960 में साधना को लेकर परख नाम की फिल्म बनाई, इसके अलावा 1962 में प्रेम पत्र नाम की फिल्म का निर्देशन किया।

बिमल दा ने सात बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्म फेयर पुरस्कार जीता। उन्हें यह पुरस्कार 1954 में दो बीघा जमीन, 1955 में परिणीता, 1956 में बिराज बहू, 1959 में मधुमति, 1960 में सुजाता, 1961 में परख तथा 1964 में बंदिनी के लिए यह पुरस्कार मिला। 1940 और 1950 के दशक में समानांतर सिनेमा के प्रणेता रहे बिमल दा के प्रोडक्शन की आखिरी फिल्म रही बेनजीर [1964]। इसका निर्देशन एस खलील ने किया था। लंबी बीमारी के बाद आखिरकार सात जनवरी 1966 को बिमल दा का निधन हो गया और इस तरह हिंदी सिनेमा को नई ऊंचाई देने वाले एक रत्न को फिल्म जगत ने खो दिया।

Saturday, November 15, 2008

ऐश्वर्य, रानी मुखर्जी और मैं

एक ओर एश्वर्य राय दूसरी तरफ़ रानी मुखर्जी। मैंने देखा ऐश्वर्य ने आँखों में कॉन्टैक्ट लेंस लगा रखा था, सलीके से कतरी हुई भौंहें, खूबसूरत पलकें... अथाह सौंदर्य। कैनवास के कच्चे रंग की तरह कि छूने से ही हाथों में लग जाएगा। हवा में उड़ती-सी भूरी जुल्फें। एकटक वह मेरी तरफ देख रही थी।

मेरे दाहिनी तरफ थी रानी मुखर्जी.. भूरी आंखों वाली इस कन्या ने कटाक्ष भरी निगाहें मेरी ओर कर रखी थीँ। पीठ पर डीप कट वाला ब्लाउज... मरून रंग की खूबसूरत साड़ी... सौंदर्य के इस जमावड़े में मैं नखदंतविहीन हो रहा था। बिषहीन तो खैर मैं पहले से ही हूं।

ऑटो के सामने वाले आईने पर पान के आकार के स्‍ीकर में- जिसे पता नहीं क्यों दिल का आकार माना जाता है- सलमान खान ने शर्ट उतार फैंकी थी। आईने के दाहिने कोने पर एक और स्टीकर था जिसमें पृष्ठभूमि से आती रेलगाड़ी और फोरग्राउंड में एक लड़की गठरी की तरह सिर झुकाए थी.. तुम कब आओगे? यह सवाल चस्पां था उस पर। आकृतियों में समानुपात जैसी कोई व्यवस्था नही..ठीक वैसे ही जैसे सड़क के दोनों ओर ऑटो के अगल-बगल से गुजरती गाड़ियों में आकार और रफ्तार का कोई अनुपात न था।

ऑटो आश्रम के उड़नपुल (फ्लाईओवपर) और उसके बाद मूलचंद के अंतःपथ (सब-वे) को पार कर अगस्त क्रांति पथ की ओर चला जा रहा था। इन सबके बीच दफ्तर की चिंता लगी थी। सैलरी में बढोत्तरी की किसी किस्म की संभावना नजर नही आ रहीष मुद्रास्फीति फर्जी तरीके से ८ दशमलव कुछ हो गया है। लेकिन मंहगाई घट गई हो, वैसा दिख नहीं रहा।

दफ्तर में काम का बड़ा बोझ इंतजार कर रहा है। छह राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, इलेक्शन डेस्क पर हूं, राज्यों का जनादेश कार्यक्रम जाना है... रंग-तंरग भी करना है.. चंद्रयान देश का झंडा चांद पर भेज रहा है.. क्या होगा अब.. हम तक तो चंदा मामा बना रहा, अब चंदा हमारा मामा नहीं रहेगा? बच्चों का लुभावना खिलौना नहीं रहेगा? कवि अपनी प्रेयसी की तुलना चांद से कर पाएंगे, गोकि देश का झंडा वहां जा लगा है?

ये मैं क्या सोच रहा हूं..ऑटो में बाई ओर से ऐश्वर्य और दाहिनी ओर से रानी कोई जबाव नही देती उनका चेहरा उतना ही खिला हुआ है जितना तब था जब मैं ऑटो में बैठा था। इंग्लैड पर भारती की जीत, मुद्रास्फीति कम होने या चांद पर तिंरगा पहुंचने की खबर का उनपर कोई असर नहीं है।
उनका सौंदर्य मेरा दुख कम क्यो नहीं कर पा रहा.. ।

Tuesday, November 11, 2008

अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे

ऑस्ट्रेलिया को सीरीज़ में हराकर भारत ने उसका दंभ तोड़ा, लेकिन रहना होगा सचेत

साल अंपायरों के ग़लत फैसलों और ऑस्ट्रेलियाई खिलाडि़यों की चालाकी की वजह से जो काम अधूरा रह गया था, वह अब पूरा हो गया है। कंगारुओं के दंभ को चकनाचूर करने के वास्ते पहला वार कुबले ने कर दिया था, धोनी ने उसे अंजाम तक पहुंचाया। धोनी ने जीत के साथ टेस्ट मैचों में बतौर कप्तान अपनी जीत की हैट-ट्रिक पूरी की। साथ ही अनुभवहीन टीम के साथ भारत को उसकी मांद में खदेड़ने का रिकी पॉन्टिंग का सपना चकनाचूर हो गया।

इस मैच में, नागपुर में, ऑस्टेलियाई दो सत्र भी खेल नहीं पाए। भारतीय मैदानों पर ३८२ रन की बनाकर जीतने की सपना देखने वाले पॉन्टिंग को सोचना चाहिए ता कि इससे पहले ऐसा कारनामा महज एक बार ही हुआ है, और वो ऑस्ट्रेलिया ने नहीं वेस्ट इंडीज़ ने किया है। भारतीय मैदान पर चौथी पारी में २७६ रन बनाकर जीत दर्ज करने का। गुमान में चूर कंगारू पांच रन के हिसाब से रन ठोंकते रहे इस भरोसे के साथ की इस रेट से वो जीत हासिल कर लेगे। लेकिन पंटर को सोचना चाहिए था कि टेस्ट मैच में यह रन रेट ज्यादा देर चलता नहीं। विकेट गिरते जाएं तो भी अप मारते जाएं तो वही होता है, जो ऑस्ट्रेलिया के साथ हुआ।

ऑस्ट्रेलिया के मन की हालत तो देखिए, इन्होंने अपने रेगलर गेंदबाजो़ की जगह हसी, वाइट औक क्लार्क को लगाए रखा। ओवर रेट पूरा करने के वास्ते। लेकिन ऑस्ट्रेलिया की टीम कायदो से कब से खेलने लगी। पॉन्टिंग को जवाब देना होगा। वैसे, जैसॉन क्रेजा ने १२ विकेट तो ले लिए, लेकिन इससे पहले सहवाग तेंदुलकर और धोनी ने उसे कूटकर भूस भर दिया था।

हम तो पॉन्टिग से उद्दंडता, आक्रामकता और गुस्सेवर तेवर की उममीद कर रहे थे, लेकिन भाई यह तो रक्षात्मक मुद्रा अपना रहे हैं। तो लगता है ऊंट पहाड़ के नीचे आ ही गया।

Saturday, November 8, 2008

ब्रेकिंग न्यूज़- दिल्ली में बर्फ़ गिरी

प्राइवेट न्यूज़ चैनल्स के लिए सादर समर्पित


जी हां, ये कोई अजूबा नहीं, बिलकुल सच है। देश की राजधानी दिल्ली में बर्फ गिरने की खबर सामने आई है। और हम तो नहीं खबरों से खेलने वाले कथित न्यूज़ चैनल चाहें तो इससे खेल सकते हैं।


दरअसल हुआ यूं कि दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनॉट प्लेस में एक साइकिल सवार ने कैरियर पर बर्फ की सिल्ली लाद रखी थी। कैरियर था ढीला और बर्फ गिर पड़ी।


इस पूरे किस्से को तीन सेक्शन मे बांट लें। और आधा घंटे का प्रोग्राम पेल दें।

गुस्ताखी माफ।

Wednesday, November 5, 2008

भीमसेन जोशी को भारत रत्न


शास्त्रीय संगीत की हिंदुस्तानी शैली में जीवित किंवदंती बन चुके भीम सेन जोशी भारत रत्न से सम्मानित किए जाएंगे। उनक आवाज़ की गहराई और उतार-चढाव के बारे में कुछ कहना सूर्य को दीया दिखाने जैसा है। दरअसल जोशी जी खुद में गायन शैली के एक स्कूल बन चुके हैं। भारत रत्न सम्मान किसी भी शख्सियत को सात साल के बाद दिया जा रहा है। इससे पहले ये पुरस्कार 2001 में लता मंगेशकर और उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान को दिया गया था।


पंडित जी को इससे पहले 1999 में पद्म विभूषण, 1985 में पद्म भूषण और 1972 में ही पद्म श्री से सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा उन्हें संगीत-नाटक अकादमी पुरस्कार भी दिया जा चुका है। लेकिन भीम सैन जोशी जी को जनता का जो प्यार मिला है, यह अनूठा ही है। 1922 में कर्नाटक के गदग में जन्मे भीम सैन जोशी किराना घराने के शिष्य रहे है। पंडित जी किराना घराने के गायिकी के अंदाज़ को अपनी शैली का पुट देकर और समृद्ध किया।


जोशी जी ने अपनी गायन शैली में दूसरे घरानों की खूबियां भी अपनाई और उन्हें और मांजकर और रागों में मिलाकर नए रागों की रचना की। जोशी जी को उनकी खयाल गायिकी के लिए खासतौर पर जाना जाता है, साथ ही उनके भजनों में जो गहराई है कहीं और मिलनी मुश्किल है। 1932 में गुरु की तलाश में घर छोड़ देने वाले जोशी जी दो साल तक उपयुक्त गुरु की तलाश में घूमते रहे। इस दौरान वह बीजापुर, पुणे और ग्वालियर में घूमते रहे।


आखिरकार उन्हें अपना गुरु मिला और ग्वालियर में उस्ताद हाफिज़ अली ख़ान से उन्होंने गायिकी की दीॿा ली। इसके बाद 1936 में सवाई घराने रामबन कुंडगोलकर से उन्होंने खयाल गायिकी की शिक्षा ली। गदग में उन्होंने सवाई गंधर्व से खयाल गायिकी की बारीकियां सीखीं। 19 साल की ही उम्र में उन्होंने अपनी पहली प्रस्तुति दी। उनका पहला अलबम तब आया जब वे महज 20 साल के थे और ये था एक भजनों के रेकॉर्ड। जोशी जी के ही प्रयासों से पुणे में हर साल सवाई गंधर्व संगीत महोत्सव आयोजित किया जाता है।


हमें उम्मीद हैं कि सुर से सुर मिलाने की बात करने वाले इस संगीत सम्राट की बात को देश ध्यान से सुनेगा।