Wednesday, January 28, 2009

कॉफी के बहाने

परिस्थिति- एक रेस्तरां में एक कॉफी की मग में मक्खी गिर जाए
स्थिति १- अगर ग्राहक फ्रेंच हो
मंदी के मद्देनज़र ग्राहक कॉफी पी लेगा, बिल चुकाकर घर जाएगा

स्थिति २- अगर ग्राहक चाइनीज हो
चाइनीज ग्राहक कॉफी फेंक देगा और मक्खी खाकर बिल चुका देगा, मुमकिन है कि वह ऐसा डिवाइस बनाए जिससे ज्यादा से ज्यादा मक्खियां कॉफी में गिरा करें।

स्थिति ३- अगर ग्राहक इस्रायली हो
ग्राहक कॉफी फ्रेंच को बेच देगा, मक्खी चीन को बेच देगा। मिले हुए पैसे से ऐसा डिवाइस बनाएगा ताकि आगे से मक्खी कॉफी में न गिरे।

स्थिति ४- अगर ग्राहक फलीस्तीनी हो

कॉफी में मक्खी देखकर इसमें इस्रायल का हाथ होने का शोर मचाएगा। संयुक्त राष्ट्र और अरब मुस्लीम समुदाय से सहायता की अपील करेगा। मिले हुए अनुदान से हथियार खरीदकर इस्रायल पर हमला करेगा।

स्थिति ५- अगर ग्राहक भारतीय हो
कॉफी में पड़ी मक्खी हटाएगा, आधी कप कॉफी पीकर मक्खी फिर से कप में डाल देगा। शोर मचाएगा कि वह उपभोक्ता फोरम में जा रहा है, रेस्तरां ने उसे धोखा दिया है.. आधी कप कॉफी वह भी मक्खी पड़ी..लेकिन मैनेजमेंट के समझाने पर मान जाएगा। साफ कॉपी पीकर संतुष्ट होगा कि एक कप कॉफी के पैसे में उसने डेढ़ कप कॉपी पी ली।

Tuesday, January 27, 2009

तू देख कि क्या रंग है, मेरा तेरे आगे'

'थिएटर के समारोह में जिस ज़ोर-शोर से इसे मज़बूत करने, बचाने की बातें होती हैं, उनकी हवा फ़ेस्टिवल के ख़त्म होते ही निकलने लगती है. लोग नाटक लेकर आते हैं. कुछ देखने आते हैं और फिर अगले समारोह तक सब शांत हो जाता है...'

भारत रंग महोत्सव के दौरान ये उद्गार रंगकर्म प्रेमियों के थे। ऐसा बीबीसी में पाणिनी आनंद ने लिखा है। मेरा निजी ख्याल ये है कि किसी रंगकर्म को बचाने की चेष्टा भला की क्यों जाए। क्या संसक्ृति सचमुच एक जंगली गदे की तरह से विलुप्तप्राय चीज़ है? आखिर फिल्में विलुप्त क्यों नहीं हो रहीं। मेरा मानना है कि जिस भी विधा ने लोक या जनमानस को बिसराने का दुस्साहस किया है उसे विलुप्त होना ही पडा़ है, होना ही चाहिए।

रगकर्म है किसके लिए? क्या यह कुछ बौद्धिक कहे जाने वाले तबके की दिमाग़ी अय्याशी होकर नहीं रह गई है या फिर क्या संस्कृति सरकारी राशन के दुकान मे मिलने वाला सड़ा हुआ गेहूं नही बन गया है? आम आदमी थियेटर क्यो देखे? जब उसके काम की चीज़ उसमें है ही नहीं? अतिअत्तम तकनीक, प्रकाश व्यवस्था और ध्वनि संयोजन के बावजूद रंगकर्म खासकर नाटको मे आम आदमी का कितना किस्सा है? ये रंगकर्मी गांव में क्यो नहीं जाते? अगर उन्हें रंगकर्म के सचमुच लोकप्रिय बनाने की खुजली है? अभिव्यक्ति के जटिल उलझाऊ व्यंजनाओं के साथ अगर वे आम आदमी को जोड़ना चाहते हैं तो यह उनकी भूल ही है।

वेटिंग ऑफ गोडो जैसे विदेशी नाटकों शुक्राणु उधार लेकर बनाए-रचे गए के हिंदी के एबसर्ड नाटक रचनात्मक रुप से समीक्षकों की वाह-वाही बटोर भले लें लेकिन टिकट लेकर थियेटर गया हुआ आम आदमी उस रचनाशीलता को चूतियापे से ज्यादा कुछ नहीं कहेगा।

जिन चीजों को आप सस्ता मान कर खुद उच्च कोटि के रचनाशील मानने का विभ्रम पैदा करते रहें हैं करें, लेकिन वह कथित सस्ती चीजें दरअसल जनता की पसंद है और जनता की पसंद का फैसला करने वाले आप कौन है जनाब? एफटीआईआई में मेरी पसंद की पांच फिल्में पूछी गईं थीं। मैंने पांच मं से एक शोले भी कहा था। वहां के विद्वान् लोग बिदक गए। शोले पर नाक-भौं सिकुड़ गईं। लेकिन भाईलोगों, धन्नो का नाम तो आपको याद ही होगा, घोड़ी थी वसंती की। इमामसाबह से लेकर मौसी तक और कालिया-सांभा से लेकर आइटम सॉन्ग में आने वाले जलाल आगा तक सब चरित्र आपको याद हैं..मास अपील वाली इससे बड़ी दूसरी कोई भारतीय फिल्म बता दीजिए।

अपनी रचनाशीलता का ढिंढोरा पीटना है तो पीटिए, लेकिन आम आदमी को उसमें मत सानिए। उसे अपनी जात्रा, बिहू, आल्हा में ज्यादा मज़ा आता है। आपकी दुकान पर वह क्यों आए? आप अनुदान लेकर विदेश यात्रा की जुगत में रहे। रंगमंच की लोकप्रियता का वितंडा खड़ा न करें।

Monday, January 26, 2009

सुनामी

रोहन सिंह दूरदर्शन न्यूज़ के पत्रकार हैं, ऐसे पत्रकार जिनके पास विचार हैं। मेरे साथी होने के साथ ही एक ऐसी शख्सियत हैं जिनके अंदर में एक अदद अकुलाहट भरी आत्मा है। उनकी कविता सुनामी से नए साल के अपने ब्लॉग लेखन की शुरुआत करना चाह रहा हूं. उनकी इस कविता को कादंबिनी ने पहला पुरस्कार दिया था। उम्मीद है कि आपको भी पसंद आएगी। --गुस्ताख़

हेमिंग्वे,
तुम्हारा बूढा आदमी अभी जिंदा है ,
क्यूंकि लहरों से ऊँची है जिजीविषा,
क्यूंकि समुद्र से संघर्ष अब भी जारी है
समुद्र को हम तबसे जानते हैं
जब उसका रंग हुआ करता था नीला
जैसे कि नीला होता ही आकाश
जैसे कि होता है नीलम
जब उसके पानी में घुला होता था रोमांच
जब मछलियों से थी हमारी दोस्ती और मुंगो के महलो में करते थे विश्राम

हाँ तब समुद्र नीला था,
अब जबकि वो लाल है .....
रक्त जैसा लाल
जानते हैं हम
समुद्र भी बदलता है रंग
और यह भी की हमेशा शांत नही होता समुद्र
सिर्फ मोती ही नही होते उसमे
लहरें भी होती हैं
और आते हैं तूफान
मीलो तक छा जाता है मौत का सन्नाटा
पर फ़िर भी निकलती हैं नौकाएं
फिर आते मछुवारे...... हाथ में लिए पतवार
हेमिंग्वे तुम्हारा बूढा आदमी अभी जिन्दा है
क्यूंकि अब भी बचे हैं दुस्साहसी

रेत पर फ़िर खेलते हैं बच्चे

सूरज फ़िर चमकता है

मदद के लिए हैं कई हाथ


आंसुओ से खारा नही है समुद्र

हाँ हेमिंग्वे तुम्हारा बूढा आदमी अभी जिंदा है

क्युकी अभी भी बची हैं संवेदनाये
जिंदा है आशाऐ