Tuesday, March 24, 2009

नॉस्टेल्जिया- वेद प्रकाश शर्मा का कोख का मोती

वेद प्रकाश शर्मा का नाम लुगदी साहित्य के पढाकूओं के लिए ऐसे ही होगा जैसे हिंदी वालों के लिए तुलसी या सूर या कबीर। लेकिन अगर कोई तुलसी के मानस की बजाय विनय पत्रिका को बड़ा माने तो? जी हां, हमारे लिए तो वेद प्रकाश शर्मा के वर्दी वाला गुंडा से बड़ी याद उसके कम फेमस उपन्यास कोख का मोती की है।

जब हम नवीं क्लास में पहुंचे, तो हमारी भाभी की बड़ी बहन का लड़का किट्टू भी हमारे साथ रहने आ गया। वजह- भागलपुर में उसकी संगति गलत हो गई थी। हालांकि वह बदमाशियों में रहता था चुनांचे उसका आईक्यू मेरे से कई गुना ज्यादा था। और हिंदी, संस्कृत और इतिहास में मुझे जब चाहे ट्यूशन पढ़ा सकता था। मैथ्स और साइंस में मेरे ठीक-ठाक मार्क्स आते। तो सिंबायसिस जैसा हो गया दोनों में, आर्ट्स वो और साइंस मैं..।

हमारे घर के बाहरी हिस्से में एक कमरा एक स्टूडेंट को किराए पर दिया गया था। दिलीप.. पढ़ने में मुझसे भी ज्यादा लिद्दड़। भुसकोल..। हमसे एक दरजा आगे पढ़ता।

बहरहाल, बड़े भाई साहब हमतीनों को कुछ होमवर्क देकर सुबह देवघर चले जाते और सीधे रात ८ बजे ही वापस आते। अब मैं और किट्टू जल्दी-जल्दी काम पूरा कर लेते शाम को और अपने क्रिस-क्रॉस ौर गपशप में मशगूल हो जाते। भाई साहब आते तो देखते कि उनके दो स्टूडेंट पढाई छोड़ किन्ही और ही गतिविधियों में संलग्न है। तो भाई साहब हमें दचक कर कूटते। दिलीप बचा रहा जाता। कैसे? वह भी बडा़ मज़ेदार है।

दिलीप साहब,-मुझे याद है वो जाड़े के दिन थे- किरोसिन लैंप के सामने पालीथी मार कर बैठते थे। दोनों हथेलियां गालों पर टिका कर नागरिक शास्त्र की किताब में परिवार अध्याय निकाल कर बैठते। याद रहे नागरिक शास्त्र की किताब मे यह पहला ही अध्याय था। दिलीप आराम से बैठे-बैठे सो जाता। लेकिन दिलीप की नींद बड़ी कच्ची थी। जैसे ही किसी के आने का खटका होता, वह अपनी बड़ी-बड़ी आंखें खोलकर सीधे किताब पर ताकने लगता। भाई साहब को लगता कि कि दिलीप पढ़ रहा है, वह बच जाता। मारे जाते हम.. फड़कर भी भाई साहब की बेदर्द छड़ियों का निशाना बनते।

इन्ही हालातों से आजिज़ आकर एक दिन हम दोनों ने तय किया कि इस लौंडे का भेद खोल दिया जाए। लौंडा सोता हुआ पकड़ा जाए. रंगे हाथ। लेकिन कैसे? इसका हल मेरे पास था। किट्टू को उपन्यास पढ़ने की लत थी। किराए पर वह हर किस्म की किताबें लाता। उन दिनों वह कोख का मोती पढ़ रहा था।

तो उन्ही दिनों में, किसी बेहद सुहानी शाम.. जब हम लोग अपनी पढाई पूरी कर चुके थे और हमारा मन किसी शैतानी की ओर हमें प्रेरित कर रहा था। हमने अपने मन को मारा.. मैं संस्कृत में और किट्टू गणित में सिर धुनने लगे। दिलीप जी बेखबर सो रहे। उसके सोने के बाद मैं चुपके से उठा और किट्टू की कोख का मोती उठा लाया। नागरिक शास्त्र की किताब दिलीप की पहुंच से बहुत दूर कोने में छिप गई। उपन्यास उसके सामने आन पड़ा। खुला हुआ। केशव पंडित के कारनामे जहां थे, एक्शन वाले।

भाई साहब आए। हमें पढ़ता देख संतुष्ट हुए। दिलीप के किताब पर नज़र पड़ी तो कहा, क्या पढ़ रहे हो। देखा, वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास- कोख का मोती। मार पड़नी शुरु ही हुई थी कि दिलीप ने कहा, किताब वह नहीं फड़ रहा था, हमदोनों में से किसी ने रख दी है। अब जनाब उसके बाद तो बेभाव की पड़ी हजरत को। मजा़ आ गया।

अगले तीन-चार दिन तक वह हम दोनों से बोला तक नहीं, लेकिन बाद में मौन टूटा। और अपने कारनामों में हमें भी शामिल करने की बात माना, तो समझौता हो गया।

7 comments:

आनंद said...

वाह। मज़ा आ गया। स्‍कूल के दिनों बाबूजी हमें भी सुबह-सुबह चार बजे उठा देते। बिस्‍तर में बैठकर दोनों हाथों में ठुड्डी टेककर पढ़ने की कला हमने भी ईजाद की थी। बाबू जी ताड़ जाते 'एक घंटा हो गया एक भी पृष्‍ठ नहीं सरका'।

ग़जब की नॉस्‍टैल्जिक पोस्‍ट ! नौवीं, दसवीं में हम वेदप्रकाश शर्मा का 'रणभूमि' और 'गन का फैसला' पढ़कर देशभक्ति से नहा उठते थे। जी करता कि अभी अगली फ़्लाइट पकड़कर अमेरिका, या इंग्‍लैंड (या जहां कहीं भी दुश्‍मनों का अड्डा हो) चले जाएँ और उन्‍हें 'चीर फाड़ कर सुखा' दें। सभी बुक स्‍टॉलों में हम खोज-खोज कर पुस्‍तकें पढ़ते। इतनी अच्‍छी देशभक्ति वाली किताबें हैं, फिर पता नहीं क्‍यों घरवाले हमें बिगड़ा हुए घोषित करने पर तुल जाते।

- आनंद

Science Bloggers Association said...

पढनीयता के मामले में वेदप्रकाश शर्मा का जवाब नहीं।

Unknown said...

ऐसा होता है भाई , और वेद प्रकाश शर्मा जी की क्या बात किस किस तरह के उपन्यास दे दें ।

ghughutibasuti said...

हाहा, बढ़िया किस्सा सुनाया।
घुघूती बासूती

Anonymous said...

Gusthakh,

Apne apane shaitaniyo bhare din ka is khoobasooratee se jikra kar hame bhi lalcha diyaa hai...

hame bhe bachapan ke we din yaad aa gae.

Unknown said...

ved prakash sharma ji ka novle "wo sala khhaddar wala" padha.
itna maza aaya ki kya batau. pyas, bhook or neend ud gaye. bas jabtak noble khatam nahi ho gaya mai soya nahi or ak hi baar mai pura padh gaya. end to bahut hi majedar tha


From : PARUL CHAUHAN GURGAON

Rahul Singh said...

मजेदार शुरुआत के सामने समापन फीका पड़ गया.