Tuesday, April 7, 2009

अच्छे-अच्छे काम करते-2

समाज ने जिस काम को इतने लंबे समय तक बहुत व्यवस्थित रूप में किया था, उस काम को उथल-पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से मिटा नहीं सका. अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के अंत तक भी जगह-जगह पर तालाब बन रहे थे.

लेकिन फिर बनाने वाले लोग धीरे-धीरे कम होते गए. गिनने वाले कुछ जरूर आ गए पर जितना बड़ा काम था, उस हिसाब से गिनने वाले बहुत ही कम थे और कमजोर भी.


इसलिए ठीक गिनती भी कभी हो नहीं पाई. धीरे-धीरे टुकड़ों में तालाब गिने गए, पर सब टुकड़ों का कुल मेल कभी बिठाया नहीं गया. लेकिन इन टुकड़ों की झिलमिलाहट पूरे समग्र चित्र की चमक दिखा सकती है.



लबालब भरे तालाबों को सूखे आंकड़ों में समेटने की कोशिश किस छोर से शुरू करें? फिर से देश के बीच के भाग में वापस लौटें.




आज के रीवा ज़िले का जोड़ौरी गांव है, कोई 2500 की आबादी का, लेकिन इस गांव में 12 तालाब हैं. इसी के आसपास है ताल मुकेदान. आबादी है बस कोई 1500 की, पर 10 तालाब हैं गांव में. हर चीज़ का औसत निकालने वालों के लिए यह छोटा-सा गांव आज भी 150 लोगों पर एक अच्छे तालाब की सुविधा जुटा रहा है. जिस दौर में ये तालाब बने थे, उस दौर में आबादी और भी कम थी. यानी तब ज़ोर इस बात पर था कि अपने हिस्से में बरसने वाली हरेक बूंद इकट्ठी कर ली जाए और संकट के समय में आसपास के क्षेत्रों में भी उसे बांट लिया जाए. वरुण देवता का प्रसाद गांव अपनी अंजुली में भर लेता था.


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