Saturday, August 28, 2010

सावन-भादों मे बलमुआ हो चुबैये बंगला

सावन-भादों मे बलमुआ हो चुबैये बंगला सावन-भादों मे...!
दसे रुपैया मोरा ससुर के कमाई हो हो,
 गहना गढ़एब की छाबायेब बंगला सावन-भादों मे...!
 पांचे रुपैया मोरा भैन्सुर के कमाई हो हो,
 चुनरी रंगायब की छाबायेब बंगला सावन-भादों मे...!
 जारी....दुइये रुपैया मोरा देवर के कमाई हो हो,
चोलिया सियायेब की छाबायेब बंगला सावन-भादों मे...!
एके रुपैया मोरा ननादोई के कमाई हो हो,
टिकुली मंगायेब की छाबायेब बंगला सावन-भादों मे...!
 एके अठन्नी मोरा पिया के कमाई हो हो,
खिलिया मंगाएब की छाबायेब बंगला सावन-भादों मे...!

(मैथिली लोकगीत)

Thursday, August 26, 2010

बाथरुम बुद्धिजीवियों को नमन

आप सबने बाथरूम सिंगर शब्द ज़रूर सुना होगा। कई तो होंगे भी। बाथरूम में गाना अत्यंत सुरक्षित माना जाता है। न पड़ोसियों की शिकायत, न पत्नी की फटकार का डर..। लोगबाग भयमुक्त वातावरण में अपने गाने की रिहर्सल करते हैं। बाथरूम ऐसी जगह है, जहां आप और सिर्फ आप होते हैं। कई मामलों में आप अकेले नहीं भी होते हैं, लेकिन हम अभी अपवादों की बात नहीं कर रहे। बहरहाल, हम मानकर चल रहे हैं कि बाथरूम में आप अकेले होते हैं। ठीक? चलिए... ।


शौचालय वह जगह है, जहां आप सोच सकते हैं। वहां कोई व्यवधान नहीं है। नितांत अकेलापन। आप और आपकी तन्हाई। हम तो मानकर चल रहे हैं कि शौचालय का नाम बदलकर सोचालय रख दिया जाए। 
 
प्रैशर को हैंडल करने का तरीका। आ रहा है तो उत्तम... नहीं आ रहा तो अति उत्तम। उस खाली वक्त में सोचना शुरु कर दीजिए। 
 
नई कविता, नई कहानी, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद जैसे कई आंदोलनों ने शौच के दौरान कूखने की प्रक्रिया में ही जन्म लिया. ऐसा हमारा विश्वास है.। कई तरह की कविताएं.. जो एसटीडी बिलों पर लिखी जाती हैं, कहानी की नई विधाएं जो आम लोगों की समझ के बाहर हों, दूसरे प्रतिद्वंद्वी साहित्यकारों पर कीचड़ उछालने की नायाब तरकीबें... कल कौन सी लड़कियां छेड़ी जाएं, इसकी लिस्ट सब बाथरूम में ही तैयार की जाती हैं। 
 

अस्तु, हम तो मानते हैं कि इस शब्द बाथरूम और शौचालय में थोड़ा अंतर है। ट्रेनों में बाथरूम नहीं होता। लेकिन वहां भी साहित्य रचना करने वाले धुरंधरों को भी हम बाथरूम साहित्यकारों के नाम से ही अभिहीत करते हैं। हिंदी में शब्दों का थोड़ा टोटा है। जगह की भी कमी है। 
 
दिल्ली जैसे शहर में बाथरूम और टॉयलेट में अंतर नहीं होता। दोनों का अपवित्र गठबंधन धड़ाके से चल रहा है। इसे कंबाइंड कहते हैं। एलीट लोग कुछ और भी कहते हों, हम किराएदार तो यही कहते हैं। दिल्ली में तो क्या है, मकानमालिक यहां उत्तम पुरुष है... किराएदार अन्यपुरुष। बहरहाल, टायलेट और बाथरूम की इस संगति की वजह से नामकरण में मैने यह छूट ली है। बाद के साहित्यकार अपने हिसाब से वर्गीकरण कर लें।



तो बाथरूम साहित्यकारों का जो यह वर्ग है, जम्मू से कन्याकुमारी तक फैला है। मैं सिर्फ पतिनुमा बेचारे लेखकों की बात नहीं कर रहा। लेकिन भोपाल हो या गोहाटी अपना देश अपनी माटी की तर्ज़ पर टॉयलेट साहित्यकार पूरे देश में फैले हैं। मैं अब उनकी बात नहीं कर रहा हूं...जो लेखन को हल्के तौर पर लेते हैं और जहां-तहां अखबारों इत्यादि में लिखकर, ब्लॉग छापकर अपनी बात कहते हैं। मैं उन लेखकों की बात कर रहा हूं, जो नींव की ईट की तरह कहीं छपते तो नहीं लेकिन ईश्वर की तरह हर जगह विद्यमान रहते हैं। सुलभ इंटरनैशनल से लेकर सड़क किनारे के पेशाबखाने तक, पैसेंजर गाडि़यों से लेकर राजधानी तक तमाम जगह इनके काम (पढ़े कारनामे) अपनी कामयाबी की कहानी चीख-चीख कर कह रहे हैं।



ज्योंहि आप टायलेट में घुसते हैं, बदबू का तेज़ भभका आपके नाक को निस्तेज और संवेदनहीन कर देता है। फिर आप जब निबटने की प्रक्रिया में थोड़े रिलैक्स फील करते हैं, त्योहि आप की नज़र अगल-बगल की गंदी या साफ-सुथरी दीवारों पर पड़ती है। यूं तो पूरी उम्मीद होती है कि नमी और काई की वजह से आप को कुदरती चित्रकारी ही दिखेगी, अगर गलती से दीवार कुछ दीखने लायक हो.. तो आप को वहां गुमनाम शायरों की रचनाएं नमूदार होती हैं, कई चित्रकारों की भी शाश्वत पेंटिंग्स दिख सकती हैं। सकती क्या दिखेंगी ही। 
 
कितना वक्त होता है, बिल्कुल डेडिकेटेड लोग.। कलम लेकर ही टायलेट तक जाने वाले लोग। जी करता है उनके डेडिकेशन पे सौ-सौ जान निसार जाऊं।
 
इतना ही नहीं, आजकल मोबाईल फोन का ज़माना है, लोग अपना नंबर देकर खुलेआम महिलाओं को आमंत्रण भी देते हैं। इतना खुलापन तो खजुराहो के देश में ही मुमकिन है। इन लोगों के बायोलजी का नॉलेज भी शानदार होता है.. तभी ये लोग दीवारों पर नर और मादा जननांगों की खूबसूरत तस्वीरें बनाते हैं।
 
पहले माना जाता था कि ऐसा सस्ता और सुलभ साहित्य गरीब तबके के सस्ते लोगों का ही शगल है। इसे पटरी साहित्य का नाम भी दिया गया था। लेकिन बड़ी खुशी से कह रहा हूं आज कि इनका किसी खास आर्थिक वर्ग से कोई लेना देना नहीं है। राजधानी एक्सप्रेस में यात्रा करने वाले ठेलेवाले या रिक्शेवाले तो नहीं ही होते हैं, वैसे में इन ट्रेनों के टायलेट में रचना करने वाले सुरुचिपूर्ण साहित्यकारों की संख्या के लिहाज से मैं कह सकता हूं कि साहित्य के लिए कोई सरहद नहीं है। कोई वर्गसीमा नहीं है। अपना सौंदर्यशास्त्र बखान करने की खुजली को जितना छोटे और निचले तबके के सिर मढ़ा जाता है, उतनी ही खाज कथित एलीट क्लास को भी है।




इन तस्वीरों के साथ चस्पां शेरों को उद्धृत करने की ताकत मुझमें नहीं है। मेरी गुस्ताखी की सीमा से भी परे ऐसे महान, सार्वकालिक, चिरंतर गुमनाम लेकिन देश के हर हिस्से में पाए जाने वाले साहित्यकारों को मैं शत-शत नमन करता हूं।




मंजीत ठाकुर

Saturday, August 21, 2010

मेरे दोस्त की प्रेम कहानी बनाम चौधरी की जात

ये किस्सा मुझसे जुड़ा भी है और नहीं भी। यह सच भी हो सकता है और नहीं भी। यानी यह फिक्शन और नॉन-फिक्शन के बीच की चीज़ है।

कहानी पढ़कर आपसे गुजारिश है कि आप प्रभावित हों और हमारे इस किस्से को किसी पुरस्कार के लिए भेजें। बात उन दिनों की है जब हम छात्रजीवन नामक कथित सुनहरा दौर जी रहे थे। कथित इसलिए कि हमने सिर्फ सुना ही है कि छात्र जीवन सुनहरा होता है, वरना असल में न तो सुनहरा हमें कभी लगा, न हम इसके सुनहरेपन को महसूस कर पाए।

बहरहाल, उन दिनों में जब मैं पढाई करने की बाध्यता और न पढ़ने की इच्छा के बीच झूल रहा था..जैसा कि उन दिनों में आमतौर पर होता है..मेरी मुलाकात एक निहायत ही हसीन लड़की से हो गई।

ये दिन वैसे दिन होते हैं, जब लड़कियां हसीन दिखती हैं( आई मीन नज़र आती हैं) । लड़कियां भी संभवतया लड़कों को ज़हीन मान लेती हैं। उन सुनहरे दिनों के लड़के आम तौर पर या तो ज़हीन होते हैं, या उचक्के.. और उनका उचक्कापन उनके चेहरे से टपकता रहता है। उन उचक्के लड़कों से लड़कियों को हर क़िस्म का डर होता है। जहीन लड़कों से ऐसा डर नहीं होता।

जहीन लड़के अगर ऐसी वैसी कोई हरकत करने - जिसे उचक्के अच्छी भाषा में प्यार जताना- कहते हैं तो प्रायः समझाकर और नहीं तो रिश्ता तोड़ लेने की धमकी देकर लड़कियां जहीनों को काबू में ऱखती हैं। वैसे, उचक्के भी पहले प्यार से ही लड़कियों को पटाने की कोशिश करते हैं, लेकिन न मानने पर सीधी कार्रवाई का विकल्प भी होता है। प्रेम का डायरेक्ट ऐक्शन तरीका.... सारा प्यार एक ही बार में उड़ेल दो.. पर इस तरीके में लात इत्यादि का भय भी होता है। सो यह तरीका तो जहीनों के वश का ही नहीं।

अपने कॉलेज के दिनों में मैं उचक्के वाली कतार में था। दफ्तर के मेरे दोस्त आज भी मुझसे कहते हैं कि तुम बदले नहीं हो। यूं कहें कि मुझपर यह उपाधि लाद दी गई है।  इस महान उपाधि के बोझ तले मैं दबा जा रहा हूं।
बहरहाल, कॉलेज के दिनों में मेरे एक गाढ़े दोस्त हुआ करते थे। गलती से लड़कियों के बीच उन्हें ज़हीन मान लिया गया। दोस्त बेसिकली मेरी टाइप के ही थे..फिर भी  भ्रम बनाए रखने की खातिर उन्हें पढ़ना वगैरह भी पड़ता था।

अस्तु...उनहीं में एक लड़की थी..नाम नहीं बताउंगा.. बड़े आत्मविश्वास से कह रहा हूं कि मैं उनका बसा-बसाया घर नहीं उजाड़ना चाहता। तो श्रीमान् वाई और मिस एक्स के बीच मेल-मिलाप हो गया। प्रेम प्रकटन हो गया। हम भी खुश, मित्र भी। लड़की राजी। प्यार चल निकला।

जहीन होने का दम भरते हुए हमारे दोस्त हमसे कटने लगे। हमने कहा कोई बात नहीं नया मुल्ला ज्यादा अल्लाह करता है। लेकिन हमारे दोस्त हम जैसे न निकले। मिस एक्स से दो कदम दूर से बाते करते रहे। न स्पर्श, चुंबन तो खैर जाने ही दें...छोटे शहर में जगह का भी टोटा।

खालिस प्लूटोनिक लव।

लेकिन इसे एक तय मपकाम तक पहुंचाने में दोस्त को एक बार फिर हम जैसों की ज़रुरत महसूस हुई। हमने कहा, पहले घर में बता लो। घर में बताया। बेरोज़गार लौंडे का प्रेम। घर में मानो डाका पड़ गया।

वाई की भौजाई से लेकर मां तक का चेहरा लटक गया। चाचा ने बात करना बंद कर दिया। लेकिन मां शायद मां ही होती है, कहने लगी- लड़की की जात क्या है। दोस्त ने बताया, चौधरी...।

अम्मां बोलने लग गईं ये कौन सी जात होती है? जात क्या है जात? ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कायस्थ, कोई तो जात होगी? दोस्त लाजवाब, हम भी।

टायटल का पंगा। न उसने बताया था, न हमने पूछा था.. चौधरी तो सभी जातों में होते हैं... ऊपर से लेकर नीचे तक हर जाति में चौधरी हैं। लड़की से पूछना मुनासिब न लगा। एक दिन डरते-डरे पूछ ही डाला। लड़की मुझसे तो खैर थी ही हमारे ज़हीन दोस्त से भी ज्यादा ज़हीन, ज़्यादा बौद्धिक निकली थी.. उसके बाप ने भी कुछ ऐसा ही पूछा था... जाति नही मिली।

मेरे दोस्त वाई के टायटल के भी कई सारे अर्थ निकलते हैं।

तो फाइनली दोस्त ने अपनी मां कीबात मान ली, लड़की ने अपने बाप की बात। वह अपनी जाति सीने से लगाए कहीं ससुराल संवार रही है, वाई  दो अलहदा दोस्तों के सामने आंसू टपका कर( मेरे सामने नहीं, ऐसे रोतडू को मैं दो लाफा मार देता हूं) छाती पर पत्थर रख चुका है।

उसमें ट्रेजिडी किंगवाला दिलीपकुमारत्व आ गया है।

लेकिन मैंने सोचा है अपनी अगली पीढ़ी में प्यार करने वाले की जाति नहीं पूछने दूंगा।

Tuesday, August 17, 2010

जीवन के चक्रव्यूह में अभिमन्यु हो गया हूं...

याद है पिछली बार हम कब रोए थे?

कभी जिंदगी में ऐसे क्षण आते हैं, जब आप रोना चाहते हैं..बुक्का फाड़कर। लेकिन रो नहीं सकते..क्योंकि आपकी रेपुटेशन ही नहीं है, उदास दिखने की। हर गम में खुश दिखना होता है, जोकर की तरह। मेरे साथ यही मुश्किल है। लाल दंत मंजन छाप दांत दिखाने की ऐसी आदत है कि लोग-बाग ज़रा सीरियस होते ही पूछ बैठते हैं- क्या बात है, उदास हो?

हर बात पर हंसो, तो दोस्त ताना देते हैं मेरी बात पर सीरियस नहीं हो, सीरियसली नहीं ले रहे हो?? क्या किया जाए। मौलिक कैसे बना जाए?

कभी एक शेर सुना था- बहुत संजीदगी भी चूस लेती है लहू दिल का, 
                                   फकत इस वास्ते जिंदादिली से काम लेते हैं...
एक और था ऐसा ही, ..... मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं वाला।

लेकिन, मजाक-मजाक में जिंदगी निकल ली..।  अपने आसपास से गजब के लोगों को जाते देख रहा हूं, मानता हूं मेरी उम्र अभी मरने की नहीं। लेकिन मरने की कोई खास उम्र भी होती है क्या?

लोग धरती की गरमाहट से हवा की सनसनाहट और राजनीति से लेकर पता नही क्या-क्या डिस्कस कर ले रहे हैं। पता नहीं मुझे क्या हो रहा है..। खुद पर से भरोसा उठता जा रहा है..।

कुछ दोस्त भी साथ छोड़ रहे हैं, कुछ ने ताजिंदगी दोस्त बने रहने का वायदा किया था...वह भी छोड़ चले... हमने वायदों पर  यकीन करना छोड़ दिया है।

दिल में कई ऐसी बाते होती हैं, जो किसी को भी नहीं बता सकते बेहद करीबी दोस्तों को भी नहीं। कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं जिनपर आप सिर्फ आप खुद से बतिया सकते हैं। ऐसे ही कुछ मुद्दों से घिरा बैठा हूं.. अभिमन्यु की तरह..

Sunday, August 15, 2010

पीपली लाइव- मेरी नजर में (पुनर्मूल्यांकन)




पीपली लाइव हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के राजनैतिक कमेंट्स को फिर से पढ़ने सरीखा है। आप पैनेपन को अगर महसूस नहीं  कर सकते तो आपको यह फिल्म नहीं देखनी चाहिए।

हर चीज की तरह पीपली लाइव को देखने के दो नजरिए हो सकते हैं, पहला नज़रिया तो मीडिया की अतिसक्रियता वाला है। दूसरा नज़रिया, गांव के किसानों की आत्महत्या का है। पूरी फिल्म में सिनैमेटोग्रफी जानदार है..। बहुत दिनों के बाद, संभवतः वेलकम टू सज्जनपुर के बाद- मैंने गांव का पैनोरमिक व्यू अपने खालिस और सही रुप मे रुपहले परदे पर देखा।

पीपली लाइव समाज या प्रशासन, मीडिया या राजनीति शहर और गांव को निशाना नहीं बनाती। यह सिर्फ अपने अस्तित्व के लिए परेशान तंत्रों द्वारा ओढ़ ली गई जिम्मेदारी की चादर को खींच देती है। ढाई सौ या ज्यादा में टिकट खरीद कर पॉपकॉर्न और ठंडा पीते हुए इस फिल्म का मजा एकआयामी होकर रह जाता है। 

दरअसल, फिल्म में संजीदगी लाने वाले मुझे महज दो पात्र लगे, एक राकेश- जो छोटे अखबार का रिपोर्टर है...और दूसरा होरी महतो। पीपली लाइव में राकेश और होरी ही लेखक-निर्देशक की सोच, जिज्ञासा, मजबूरी और दुखद अंत का संवाहक है।


पीपली लाइव समाज की विडंबनाओं और विद्रूपताओं को उजागर करती हुई नत्था, बुधिया, झुनिया, बूढ़ी मां, होरी के जीवन का परिचय देती है। नत्था की आत्महत्या की घोषणा खबर है, लेकिन होरी की गुमनाम मौत का कोई गवाह नहीं है। निश्चित ही अनुषा के मानस में प्रेमचंद की गोदान का नायक होरी जिंदा रहा होगा। 

पूरी फिल्म में आर कई बार नत्था को देखते हैं। उनके हिस्से में संवाद कम हैं...लेकिन रघुवीर यादव ने अपने कंधे पर कई जिम्मेदारियां ढोई हैं। फिर भी यादव का किरदार भी बहुआय़ामी नहीं हो पाया है। 

जो सीन आपको याद रखना चाहिए और जिस सीन को ज्यादातर लोग रिकॉगनाइज़ नहीं कर पाएऐगे वह है विभिन्न बाइट्स और लोगों के चेहरों के मोंटाज के बीच कठपुतलिय़ों का इंसर्ट..और फिर राकेश को जब पता लगता है होरी की मौत का तब उसे मीडिया की असलियत और जिंदगी की असलियत का भान होता है। उस दौरान आप देखते हैं कि एक लड़की रस्सी पर अपना संतुलन बनाने की कोशिश कर रही होती है। 

कभी मीडिया में रही अनुशा रिज़वी के लिए यह सीन बड़ा इंपॉर्टेंट रहा होगा। उनकी पटकथा का जानदार हिस्सा..यह सीन संतुलन साधने की सीमारेखा बताता है।

बहरहाल, पीपली लाइव हमारे किसानों की दशा पर एक डॉक्यु-ड्रामा सरीखा है। लेकिन कुछेक लूपहोल्स भी है। जैसे कोई भी चैनल अपने ओबी वैन को छतरी तान कर सड़क पर चलने की इजाजत नहीं देगा। यह गलती अनुशा ने कैसे की मुजे नहीं पता। 

दूसरे, दीपक (अर्थात् चौरसिया) का किरदार ज्यादा हल्का और इंडियाटीवीनुमा है। लेकिन वहीं अंग्रेजी की पत्रकार (संभवतः- बरखा) ज्यादा संतुलित नजर आती है। इसके मुझे कुछ कारण पहले ही नजर आ गए। फिल्म शुरु होने से पहले ही प्रणय और राधिका को धन्यवाद दिया गया है। ऐसे में अंग्रेजी चैनल से जुड़ी रहीं अनुषा अंग्रेजी के पक्ष मे ही खड़ी नजर आएं तो क्या हैरत? 

बहरहाल, पूरी फिल्म प्रशासन और और सरकार, मीडिया और राजनितिज्ञों पर कटाक्ष करती जाती है। इस फिल्म को आर्ट और कमर्शियल सिनेमा के बीच की कड़ी होने का पूरा हक़ है। 

लेकिन फिल्म देखने जा रहे हैं, तो इसकी गालियों बेहद ओरिजिनल चरित्रों और संवादों पर हंस कर वापिस मत आ जाएं। इससे निर्देशक की कोशिशों पर पानी फिर जाएगा। अच्छो हो आप व्यंग्य और विद्रूप को समंझें ....व्यंग्य सिर्फ हंसी में उडाने की चीज़ नहीं। 

और हां, दस्तावेज़ की तरह बनी ये फिल्म आने वाले दिनों में सिनेमा के विद्यार्थियों को स सिनेमा पर समाज के असर पढाने के काम आएगी।

बैठे-ठाली छंदब्द्ध गुस्ताखी

जय भोले महादेव-शिव-शंकर
मार दो अब दुश्मन को कंकर,

आज अखाडे मे भगवान,
घुमा दो तेजों में निज लंगर,

सामने दुश्मन आने ना पावे,
आ जाए तो जाने ना पावे.

मन के लड्डू फोड़-फोड़ के,
खाना चाहे तो खाने ना पावे,


उसे फंसा दो ऐसे जाल में,
घूमता फिरे फटे हाल में,


एक लंगड़ी ऐसी मारो,
बारहों महीना पिटे साल में

मारो ऐसा मिले ना पानी,
याद करा दो उसको नानी,

Wednesday, August 11, 2010

पिता को खोना सबसे बड़ा नुकसान है...

सावन की अमावस्या मेरे पिता की पुण्यतिथि होती है..। यह तारीख कल थी..। पिता रोज़ याद आते हैं लेकिन कल उन्हें याद करने की कई वजहें पैदा हो जाती हैं।

मैं मानता हूं कि जीवन में मां की मौजूदगी उसी तरह ज़रुरी होती है जैसे कि पौधे के लिए पानी। लेकिन पिता की मौजूदगी वैसी ही होती है जैसे उसी पौधे के लिए धूप, जैसे आंगन में नीम का छायादार पेड़...। मेरे पिता कोई बहुत असादारण इंसान नहीं थे। असाधारण इस अर्थ में कि उन्होंने किसी अंबानी की तरह न तो कोई बिज़नेस अंपायर खड़ा कर दिया, न अमिताभ की तरह कोई इतना नाम पैदा कर पाए कि बेटे-बेटियों यानी हमलोगों का भविष्य कुछ सुरक्षित कहा जा सके।


मेरे पिता महज एक टीचर थे। टीचरी उनका खानदानी पेशा था..मेरे पिता यानी रामदेव ठाकुर के पिता भी टीचर थे..क्योंकि आजादी के आंदोलन से जुड़ने खासकर गरमपंथियों से जुड़ने की वजह से सरकार ने खेती की सारी जमीनें छीन लीं। उनदिनों मिथिला दरभंगा महाराज की ज़मींदारी में था, और उनके दायाद-बांधव होते हुए भी अंग्रेज सरकार के खिलाफ होना कोई बुद्धिमानी मानता न था। उनदिनों भी टीचरी कोई पेट पालने का जरिया तो नहीं था कि ट्यूशन वगैरह पढ़ा लेते।

तो पिताजी का जीवन गरीबी में शुरु हुआ और खत्म भी गरीबी में ही हुआ। गरीबी से निकलने का न तो उन दिनों कोई उपाय था, आज भी नहीं है।

हाल ही में घर गया था, मधुपुर, तो पिताजी के हस्तलेख में कविता-पुस्तक पर नजर पड़ी। मां ने अमानत की तरह इसे गोदरेज के आलमिरे में संभाल रखा है। लॉकर में। कविता-पुस्तक कोई किताब नहीं है, यह लाल-नीली-हरी रोशनाई से पिताजी के सुंदर हस्तलेख में उनकी रचनाओं का संकलन भी है और उनकी डायरी भी।

उस दौर में जब पूरे देश में रौमांस का जादू सर चढ़कर बोलता था और देव आनंद और उसके बाद राजेश खन्ना लोगों के आइडल थे, पिताजी ने सिनेमा को कभी आम आदमी का माध्यम नहीं माना। उनके हिसाब से सिनेमा भूखे लोगों की भूख नहीं मिटा सकता है और यह भूखे लोगों की भूख को उसी तरह कुछ देर के लिए सुन्न कर देता है जैसे सिरदर्द की गोली दर्द को खत्म नहीं करती सुन्न कर देती है तंत्रिका तंत्र को।

मेरे पिता हारमोनियम, सितार और तबले बहुत अच्छी तरह बजा लेते थे। कविताएं लिखते थे..उनकी कविताओं में मैथिली कविताएं बाहुल्य में हैं। एक सब्जी होती है तोरी- जिसे मैथिली में कहते है झिंगुनी, या झिमनी। उसपर कविता है...उसके हरे पन पर उसके ताज़ेपन पर।

खैर..पिता को मैंने तब खो दिया जब मैं यह भी नहीं जानता था कि जीवन है क्या...जीवन में चीजों और इंसानों की अहमियत क्या होती है...जब मैंने बोलना भी नहीं सीखा था। 1982 से 2010....28 साल कम नहीं होते। अतीत की गर्द हर चीज़ पर जम जाती है। लेकिन पिता की स्मृतियां ऐसी हैं कि लगता है पिता आज भी मेरे सामने खड़े हैं। बेशक, उनकी तस्वीर कुछ धुंधली सी है।

दिक्कत ये कि पिता को तस्वीरें खिंचवाने से नफरत। बस , उनकी एक ही तस्वीर हमारे पास बची थी। और वह थी उनके शव के पास बिसूरती मां और हम सारे बच्चे..। वह तस्वीर हमें हमेशा विचलित ही करता है। फिर मेरे अध्वसायी बड़े भैया ने पिता के कॉलेज, मधुबनी से उनकी तस्वीर निकलवायी। अब वह एक कॉपी के तौर पर हमारे सामने हमारे दिलों के पास है।

मेरे पिता चित्रकला में भी हाथ आजमाते थे। रोशनाईयों से द्विआयामी चित्र उकेरना उनका शगल था। और इसी वजह से उनके कई विद्यार्थियों में चित्रकला की लगन भी लगी। पिता की मृत्यु के ठीक बाद सुरेश मांवडिया, जो बीएचयू से ताजा-ताजा बीएफए कर निकले थे या उस दौरान पढाई कर ही रहे थे...उनका एक पोट्रेट बनाकर मां  को भेंट की थी।

बहरहाल, पिता और उनके मूल्यों ने झंझावातों से हमें निकाला है। विरासत में कोई दौलत वह छोड़ नहीं पाए, लेकिन अपने बच्चों को अच्छा इंसान बनाने की उनकी चाहत पर हम कितने खरे उतर पाए यह तो वह स्वर्ग से ही देख पा रहे होंगे।

लेकिन फिर भी यह तय है कि जिन परिस्थितियों से मैं दो-चार हुआ, जो संघर्ष करना पड़ा, वह शायद पिता जीवित होते तो मुझे नहीं करना होता। जिन पलों में मुझे जीवन के आगे झुक कर समझौता करना पडा, पिता होते तो शायद मुझ जैसे कमजोर पौधे को सहारा दे देते...पर अफसोस। पिता को खोना दुनिया का सबसे बड़ा नुकसान है.....

Sunday, August 1, 2010

कितना विचारवान है हिंदी सिनेमा?

क्या हिंदी सिनेमा में कोई विचार है? या सिर्फ पैसा ही एकमात्र विचार है..

मंजीत ठाकुर

भारतीय सिनेमा खासकर हिंदी सिनेमा में विचारधारा की बात थोड़ी अटपटी लग सकती है, क्योंकि ज्यादातर हिंदुस्तानी फ़िल्में मसाले की एय्यारी और मनोरंजन का तिलस्मी मिश्रण होती हैं। लेकिन यह भी सच है कि मनोरंजन के तमाम सीढियों पर जाने और कला-शिल्प की आरोह-अवरोहों के बावजूद सिनेमा ने पिछले आठ दशकों में सामाजिक मकसद को भी एक हद तक पूरा किया है। फूहड़ से फूहड़ फिल्म में भी कोई एक दृश्य मिसाल की तरह बन जाता है और बेहद व्यावसायिक मसाला फिल्म में भी लेखक अपनी विचारधारा उसी तरह पेश कर देता है, जैसे समोसे के भीतर आलू।  
बहुत गंभीर फिल्में, जिनके निर्देशक कला पक्ष को लेकर बहुत सतर्क रहते हैं- वहां विचारधारा निर्देशक पर आधारित और सोच समझ कर फिल्म में डली होती हैं। 1930 में, जब आजादी का आंदोलन जोर पकड़ चुका था व्रत नाम की एक फिल्म का मुख्य पात्र महात्मा गांधी जैसा दिखता था और लोगों से सच्चरित्रता की बातें करता था और इसी वजह से ब्रितानी सरकार ने इस फिल्म को बैन कर दिया। 


1936 में देविका रानी और अशोक कुमार की अछूत कन्या में दलित समस्या जो बाद में सुजाता में भी उभरकर सामने आई और बाद में 1937 में वी शांताराम ने दुनिया न माने में बाल-विवाह के खिलाफ आवाज बुलंद की।

कुछ अपवादों को छोड़ दें तो दादा साहब फाल्के की मूक फ़िल्मों से लेकर नए दौर के सिनेमा और समांतर सिनेमा के युगों से होते हुए श्याम बेनेगल की ताजातरीन वेलकम टू सज्जनपुर तक जो विचारधारा हिंदुस्तानी फिल्मों में दिखती है वह उदारवादी मार्क्सवाद है। इसमें-बजाय व्यवस्था और सत्तातंत्र के खिलाफ हिंसक क्रांति के-सामाजिक न्याय और उदारवादी विरोध है। यह करीब-करीब गांधीवादी आदर्शवाद ही है।


हिंदुस्तान में कट्टर और क्रांतिकारी वामपंथी विचारधारा अगर फिल्मों में विकसित नहीं हो पाई तो इसकी वजह हिंदुस्तानी जनता ही है, जो अध्यात्म और भाग्य पर ज्यादा भरोसा करती है। यहां विभाजन वर्ण का है, वर्ग का नहीं; इसलिए यहां जाति, वर्ग से ज्यादा अहम है। इसलिए कुछ अपवादों को छोड़कर भारतीय सिनेमा में जो विचारधारा दिखती है वह सामाजिक न्याय की हिमायत करने वाली विचारधारा है।



इतालवी नव-यथार्थवादी विचारधारा के असर से भारत में एक फिल्म बनी- दो बीघा ज़मीन। इस फिल्म पर विक्तोरियो डि सिका की लीद्री दि वीसिक्लित्ते (वायसिकिल थीव्स) का असर साफ देखा जा सकता है। ग्रामीण अत्याचारी ज़मींदारी व्यवस्था और शहरी नव-सामंतवाद के खिलाफ इस फिल्म को एक दस्तावेज़ माना जा सकता है।


सत्तर के दशक की शुरुआत में एक ओर तो अमिताभ का अभ्युदय हुआ दूसरी ओर समांतर सिनेमा का। बहुधा लोग अमिताभ के गुस्सैल नौजवान को एक सामाजिक चेतना के तौर पर स्वीकार करते हैं। जंजीर का गुस्सेवर पुलिस इंस्पैक्टर हो या दीवार का नाराज़ गोदी मज़दूर, या फिर त्रिशूल का बदला भंजाने पर उतारु नौजवान..। हालांकि यह जनता की नाराजगी के रुप में स्वीकृत हुआ है, लेकिन है यह निजी गुस्सा ही। तीनों ही फिल्मों का नायक अपने परिवार का बदला ले रहा होता है, यह बात दीगर है कि किरदार के निजी अनुभव आम जनता से मेल खा गए। बनिस्बत इसके, अर्धसत्य के ओम पुरी के किरदार का गुस्सा अमिताभ के किरदारों से गुस्से से कहीं ज्यादा वैचारिक और सामाजिक चिंता से उपजा है।
दूसरी ओर उसी दौर के समांतर सिनेमा में वामपंथी विचारधारा अधिक मुखर हुईं। अंकुर, पार, निशांत अंकुश और आक्रोश जैसी फिल्में इसी वैचारिक संघर्ष को पेश करती हैं।


कई बार मुख्यधारा की फिल्मों में भी कई लेखकों ने कई ऐसे किरदार रच दिए जो पूरी विचारधारा तो पेश नहीं करते लेकिन आप तक अपनी बात पहुंचा कर ही दम लेते हैं। फिल्म बंडलबाज़ में जिन्न बने शम्मी कपूर आम इंसान की तरह पहाड़ चढ़ते वक्त राजेश खन्ना से कहते हैं कि आम आदमी होना कितना मुश्किल है।
अमिताभ बच्चन की प्रतिभा का फिल्मकारों ने विशुद्ध व्यावसायिक दोहन किया। लेकिन याद कीजिए फिल्म कुली का वह दृश्य जिसमें सुरेश ओबेरॉय और अमिताभ के बीच स्विमिंग पूल के पास मारपीट होती है। ओबेरॉय हथौड़ा उठा लेते हैं और अमिताभ के हाथ लग जाता है हंसिया। फिर हंसिया और हथौड़े का एक्सट्रीम क्लोज शॉट...निर्देशक ने अपना काम पूरा कर दिया, लेखक ने अपना। विचारधारा को बगैर फतवे के पेश कर दिए जाने का नायाब नमूना है यह।


कभी अमिताभ के लिए कठिन प्रतिद्वंद्वी बन चुके मिथुन फूहड़ फिल्में बनाने में उनके भी उस्ताद निकले। लेकिन ज़रा ध्यान दीजिए, मिथुन ने ज्यादातर फिल्मों में गरीब आदमी के किरदार निभाए हैंऔर उनकी प्रेमिका और खलनायक हमेशा धनी-पूंजीपति होते हैं। वर्ग संघर्ष दिखाने का यह तरीका आम आदमी को बहुत भाया। मिथुन की इसकी परंपरा को बाद में गोविंदा ने चलाया, लेकिन बाद में वह दादा कोंडके की राह पर चले गए।


एक दशक होने को आए, लगान ने भी क्रिकेट के बहाने निहत्थे आम आदमी के जीवन-संग्राम में  महज  साहस के बल पर कूद जाने की कहानी कही। नागेश कुकूनूर की इकबाल भी इसी आम आदमी के और भी छोटे स्वरूप को पेश किया। हाल में लगे रहो मुन्ना भाई और रंग दे बसंती ये दो फिल्में ऐसी ज़रुर आईं, जिनमें विचार हैं। प्रायः माफिया का किरदार निभाने वाले संजय दत्त लगे रहो..में गांधीगिरी करते नज़र आए। इस फिल्म ने उस दौर में जनता को अहिंसक विरोध के नए स्वर दिए, जब बदलती दुनिया में युवा पीढी गांधी को तकरीबन आप्रासंगिक मानने लगी थी। दूसरी ओर इसी युवा पीढी को विरोध का एक और विकल्प दिया, रंग दे बसंती ने।  

हालांकि, रंग दे.. में विरोध हिंसक है..लेकिन फिल्म सोचने पर मजबूर करती है। इसमे एक विचारधारा तो है। 


जाहिर है, हिंदी सिनेमा ने मनोरंजन तो किया है लेकिन उसकी भी सीमा है। सामाजिक मकसद से फिल्में तो बनी हैं, लेकिन बाजार ने हमेशा पैसे को विचारों से ऊपर जगह दी है। ऐसे में जब मणिरत्नम् भी डिस्ट्रीब्यूटर्स को लेकर जवाबदेह गो जाते हैं..तो बाकियों को क्या कहना। और नैतिकता...फिल्मी दुनिया में यह अनचीन्हा शब्द है।