Saturday, August 27, 2016

स्वर्ण-(अ)काल

ओलिंपिक खत्म हो गया है और पदक तालिका में भारत 67वें पोजीशन पर रहा। अगर मैं इस पर कुछ लिखूं तो जाहिर है यह सांप निकलने के बाद लकीर पीटने सरीखा होगा, लेकिन 119 खिलाड़ियों के दल ने जब सिर्फ दो पदक भारत की झोली में डाले, तो यह आत्मनिरीक्षण करना ज़रूरी होगा कि आखिर यह कौन सा सांप है जो हमें डस रहा है। ओलिंपिंक के बाद, शून्य स्वर्ण का यह लकीर हमें पीटनी होगी।

वैसे भारत का प्रदर्शन इसके चाल-ढाल और रवैए के लिहाज़ से खराब नहीं ठहराया जा सकता। चीनी मीडिया में हमारा मज़ाक बना तो हम तिलमिला उठे, लेकिन आपकी तिलमिलाहट उस वक्त कहां खो गई थी, जब हमने मैराथन थावक जेशा को बिना पानी के ट्रैक पर धराशायी होते देखा।

ठीक भी है, अपने देश में तो ‘खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब’ का मुहाविरा बहुत पॉपुलर है। तो हम पूरी कोशिश करते हैं कि हमारे बच्चे खेलते-कूधते खराब न हो जाएं। वैसे मुहाविरे का दूसरा हिस्सा हैः पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नव्वाब। अलबत्ता, भारत में नव्वाबों की गिनती भी बेहद कम ही है।

चुनांचे, ऐसे नवाबों ने फेसबुक पर मेरी गत बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ ऱखी। मैं भारत के इस बदतरीन प्रदर्शन से नाखुश था और मैंने कहा कि भारत का यह शून्य काल है और भारत ने चूंकि, शून्य की खोज की है इसलिए भारत भी शून्य पदक ही लाएगा। बहरहाल, मेरे इन जानी दोस्तों ने, सबसे पहले साक्षी मलिक और फिर पी वी सिंधु के पदक तालिका में जगह पक्की करते ही मुझे तस्वीरों में टैग करके गरियाना शुरू किया।

लेकिन यकीन मानिए, मैं अभी भी कह रहा हूं यह भारतीय खेलों का शून्यकाल ही है। यह न कहिएगा कि जनता की खेलों में रूचि नहीं है। जीतने वाले खिलाड़ी पर सबकी निगाहें टिकती हैं। खुद मैंने रियो से पहले कभी बैडमिन्टन का मैच पूरा नहीं देखा था। साइना नेहवाल का मैच भी नहीं। लेकिन सिंधु ने उम्मीद जगाई तो सारा देश टीवी की ओर स्वर्ण पदक के सूखे के खत्म होने की बेकरारी से देख रहा था।

हॉकी और तमाम ऐसे ही खेलों के भारत में बहुत ज्यादा लोकप्रिय नहीं होने, जाहिर है इसमें मानक क्रिकेट है, के लिए क्रिकेट की अपार लोकप्रियता को दोषी ठहराया जाता है। लेकिन क्या यह सच नहीं कि भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता अपने सर्वोच्च पायदान की तरफ तब बढ़ी जब भारत ने पहली बार विश्वकप 1983 में जीता था?

पदक हो या कप, आपको जीतकर दिखाना होगा।

जहां तक इन पदकों के लिए सुविधाओं की बात है, अगर इस मामले में सच में ईमानदारी होती और शून्य नहीं होता, और खिलाड़ियों के चयन में ही ईमानदारी अपनाकर भाई-भतीजावाद नहीं होता, उसी से हमारी प्रतिभाएं हमें विश्व बिरादरी में सर उठाकर चलने लायक बना देतीं। फिर आता है, खेलों के गैर-बराबरी का बरताव और सुविधाओं का अभाव। जाहिर है, खेल संघों में जबरदस्त राजनीति, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार ने हमारे देश में खेलों को नुकसान पहुंचाया है।

खैर, खेल संघों की छोड़िए, वह तो होते ही है राजनीतिज्ञों के लिए नेट प्रैक्टिस करने की जगह। जरा अपने आसपास ही नजर दौड़ाइए। क्या आपके मुहल्ले में खेल का मैदान है? क्या आपने दिल्ली, मुंबई समेत तमाम महानगरों में नगर प्लानिंग में इमारतों के जंगल के बीच छुटके पार्कों के अलावा कहीं खेल मैदान की जगह देखी भी है? क्यों होगी? खेल के मैदानों से बिल्डरों को कोई फायदा नहीं होता। शायद समाज को होता है और बिल्डरों का समाज से कोई लेना-देना नहीं।

मुहल्ला छोड़िए, आप आसपास के कॉलेजों में ही नजर डाल लें, तो आपको गिनती के कॉलेजों में खेल की सुविधाएं या मैदान दिखेंगे। कभी पास के मॉल में विंडो शॉपिंग करने वालों पर नज़र डालिएगा, तकरीबन हर तीसरा आदमी आपको स्पोर्ट्स शू और ट्रैक सूट में नजर आएगा। चाहे वह कभी भी कसरत न करे लेकिन ट्रैक सूट जरूर पहनेगा। चाय मे चीनी पीना छोड़ देगा लेकिन व्यायाम नहीं कर पाएगा।

भारतीय लोगों के पास खेल के लिए वक्त की खासी कमी होती है। असल में यही शून्यवाद है। फेसबुक पर मेरे ऐसे ही पोस्ट्स की वजह से एक शख्स ने मुझसे कहाः भारत को नीचा दिखाते वक्त तुम्हें शर्म नहीं आती? तुमने जीवन में क्या किया है, कभी कोई पुरस्कार जीता? तो देश के खिलाड़ियों से पदक की उम्मीद क्यों?

ठीक है, मैं पदक की उम्मीद नहीं रखता। लेकिन फिर आप दर्शक पाने की उम्मीद भी न करें। खेल को बढ़ावा देने के लिए जीतने की आदत, किलर इंस्टिंक्ट पैदा करनी होगी, तमाम शाबासियां अपनी जगह, लेकिन दीपा करमाकर अगर चौथे की बजाय, कांसा, चांदी या सोने का तमगा जीत लाती तो क्या हमें और अच्छा नहीं लगता! लेकिन उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं नहीं मिलीं। मिलतीं तो उन्हें पदक भी मिलता। निजी प्रयासों से पदक जीतना प्रतियोगिता के इस गलाकाट दौर में मुश्किल ही नहीं, तकरीबन नामुमकिन है।

और हां, ओलिंपिक का ध्येय वाक्य चाहे लाख सब दोहराएं कि जीतने से अहम होता है खेल में हिस्सा लेना, लेकिन सिर्फ हारते रहने और हिस्सा लेते रहने की उबाऊ प्रक्रिया का अंग बने रहना भी कोई बहुत उम्दा बात नहीं है। और हां, पत्रकारिता पदकों के लिए नहीं की जाती है।

मंजीत ठाकुर

Tuesday, August 16, 2016

जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं...

शिकायत करना हम देशवासियों का शगल है। लेकिन मैं कोई शिकायत करने नहीं जा रहा। वाकिया तब का है, जब मैं उड़ीसा के एक दौर पर जा रहा था। हिलती-डुलती गाड़ी के एसी के दूसरे दर्ज़े में बैठा था। कोशिश कर रहा था कि मैं अपने लैपटॉप पर कोई फ़िल्म ही देख डालूं। सामने की सीट पर एक बुजुर्गवार बैठे थे। साथ में उनका घरेलू कामगार था, किसी उड़िया जनजाति का लड़का था। बच्चा ही था। बुजुर्गवार की पत्नी साथ में थीं। 

बुजुर्ग दंपत्ति के कपड़ों से लगता था, काफी साधारण घरों के रहे होंगे। खादी का मोटा कुर्ता, धोती कभी सफेद रही होगी। गले में खादी का मोटा गमछा। रंग ताम्रवर्णी। बाल श्वेत हो चले। भौंहे तक सफ़ेद। बीवी के हाथों में कांच की चूड़ियां। बैंगनी रंग की साधारण सूती साड़ी। दोनों के पांव में हवाई चप्पलें। नौकर के पैरों में जो हवाई चप्पल है उस पर फेसबुक लिखा है।

मैं भी गपोड़ हूं और शायद सामने बैठे बुजुर्गवार भी। ट्रेन अभी स्टेशन से बाहर निकल कर आईटीओ भी न पार कर पाई होगी कि हम दोनों के बीच बातचीत शुरू हो गई थी। और तब तक होती रही, जब तक हम भद्रक न पहुंच गए। पत्नी सारे रास्ते चुप बैठी रही। एक गंवई पत्नी की तरह।

कोच अटेंडेंट आता है। मुझसे बात करते वक्त उसके अंदर एक वित्तीय आदर है। उस आदर में शाम को मेरे उतरने के वक्त मिलने वाली टिप की उम्मीद का बोझ है। वही अटेंडेंट आकर उनसे ऐसे बात करता है मानो बहुत दिनों से जानता हो। पूछता है, बहुत दिनों बाद आए।

मैं पूछता हूं, आप दिल्ली बार-बार आते हैं क्या। हां। इसके बाद बातचीत महंगाई, नक्सल, जनजातियों की समस्या, वेदांता, कोरापुट, नक्सल, राहुल गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह तक पहुंच जाती है। बुजुर्गवार को महीन जानकारियां हैं।

मेरे बारे में बहुत पूछताछ करते हैं। कहां के हो, कौन है घर में...लेकिन इस पूछताछ में एक बुजुर्गाना लाड़ और आह्लाद है। अब मैं पूछता हूं आप..? तब बताते हैं कि उनका नाम अनादिचरण दास है। पांच बार सांसद रह चुके हैं। आखिरी बार सन् 91’ लोकसभा जीते थे। पहली बार 71’ में जीते थे। अपने बारे में बस इतना ही बताते हैं।

मैं सादगी देखकर दंग हूं। अब तो हाल यह है कि पहली बार विधायक बनकर लोग खदानें खरीद रहे हैँ। निर्दलीय मुख्यमंत्री ने सुना दक्षिण अफ्रीका में सोने की खान खरीद डाली थी। मेरे ही गृह राज्य का सीएम रहा था वह। और यहां, पांच बार सांसद चुना जा चुका शख्स हवाई चप्पल पहन रहा है! एसी के दूसरे दर्जे में सफर कर रहा है! चेहरे पर दबंगई का कोई भाव नहीं!

मैं सोचता हूं आजादी का जश्न पूरे भारत में मनाया गया होगा। लेकिन, पटवारी से लेकर विभिन्न मंत्री भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। वह बुझे मन से कहते हैं, किसी ने कहा है राज्यसभा की सीट सौ करोड़ में बिकती है। हामी भरने के सिवा कोई चारा नहीं है मेरे पास।

रात में गूगल किया था मैंने, अनादि चरण दास को खोजा गूगल पर। मिल गए। उड़ीसा के जाजपुर सीट से सन् 1971, 1980 और 1984 में कांग्रेस के टिकट पर चुने गए थे, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस छोड़ी, विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ जनता दल गए, वहीं से दो बार 1989 और 1991 में चुनाव जीता। 1996 में फिर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े, लेकिन जनता दल की आंचल दास से चार हजार वोटों से हार गए। फिर उम्र के तकाजे के साथ राजनीति छोड़ दी। जाजपुर-कोरापुट इलाके में अनादिचरण दास एक मजबूत उम्मीदवार माने जाते थे। लेकिन, उनके पास आज दौलत के नाम पर कुछ नहीं।

कह रहे थे कि हर महीने वंचितों, गरीबों, जनजातियों के आर्थिक उत्थान के लिए हर महीने योजना आयोग (यात्रा के वक्त योजना आयोग था, नीति आयोग नहीं बना था) और सोनियां गांधी को चिट्ठी लिखते थे। पता नहीं पढ़ी भी जाती थी या नहीं। पेट्रोल के दाम बढ़ाने के पक्ष में हैं, कहते है इसका पैसा एससी-एसटी बच्चों की शिक्षा के लिए करना चाहिए।

गुरूदत्त की फिल्म प्यासा का एक गीत याद आ रहा है, जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं....ईमानदारी को गूगल पर खोजता हूं। इसे खोजने में तो गूगल भी नाकाम है।

Saturday, August 13, 2016

जड़ से उखड़े लोग

विस्थापन लोगों को जड़ो से उखाड़ता है। देश भर में और शायद दुनिया भर में भी विकास बनाम पर्यावरण, वन्य जीव बनाम इंसान जैसी बहसें चल रही हैं और शायद बुद्धिजीवी तबके से लेकर सरकारें और संयुक्त राष्ट्र समेत अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं तक पर्यावरण, विकास, वन्यजीवों के संरक्षण और मानव के कल्याण और उनके रहवास जैसे विषयों की प्राथमिकता पर एकमत होने की कोशिशों में लगे हैं।

आज मैं वन्य जीवों के संरक्षण से जुड़ी परियोजनाओं में से एक के बारे में बात करना चाहता हूं कि किसतरह वन्य जीवों के संरक्षण के क्रम में इंसानों को हाशिए पर धकेला गया है। यह ठीक है कि वन्यजीवों और उनकी नस्लों को बचाना बेहद ज़रूरी है, लेकिन उनको बसाने के लिए जिन लोगों को उजाड़ा जाता है, खासकर उनमें आदिवासी लोग और आदिम जनजातियां ही उजड़ती हैं, उनके पुनर्वास पर संवेदनशील तरीके से सोचने और उसे कार्यरूप में बदलने की जरूरत है।

भारत की बात करें, तो देश भर में हुए विस्थापनों के आंकड़े बताते हैं कि सन् 1950 के बाद से भारत में वन्य जीवों से जुड़ी परियोजनाओं में करीब 6 लाख लोग विस्थापित हुए हैं। यह बाक़ी सभी योजनाओं-परियोजनाओं की वजह से हुए विस्थापन का 2.8 फीसद ही है। इनमें से करीब 21 फीसदी यानी 1.25 लाख लोगों का पुनर्वास किया गया। इसका आंकड़े का दूसरा पहलू यह है कि 4.75 लाख लोगों का पुनर्वास नहीं हो पाया। यह वन्य जीवन विस्थापन की कुल आबादी का 79 फीसदी है। गौरतलब है कि कुल विस्थापितों में से 4.5 लाख लोग जनजातीय समुदाय के हैं। यानी करीब तीन चौथाई। सिर्फ एक लाख जनजातियों का ही पुनर्वास हो सका, यानी 78 फीसद विस्थापित जनजातियों का पुनर्वास आजतक नहीं हो पाया है।

मैं मध्य प्रदेश के एक जिले श्योपुर के गांव टिकटोली गया था। टिकटोली कूनो-पालपुर अभयारण्य की सरहद पर बसा है। यहां मिले थे मुझे रंगू। धंसे गालों वाले रंगू ने मुझे एक किस्सा सुनाया। उस किस्से का मुख्तसर यह कि सृष्टि की रचना के बाद ब्रह्मा जी ने सहरिया नाम के कबीले को धरती के आसन के ठीक बीच में बिठाया था। लेकिन सहरिया लोग सीधे-सादे थे। उनके बाद रचे गए लोग आते गए और सहरियाओं से थोड़ा खिसकने को कहते रहे। बहुत देर बाद जब ब्रह्मा जी आए, तो उन्होंने देखा जिस सहरिया को वह बीच में बिठाकर गए थे वह सबसे किनारे बैठा है।

इस कहानी को महज कहानी नहीं प्रतीक मानिए। कूनो-पालपुर जंगल में शेर-चीतों और बाघ को बसाने की सरकारी कोशिश में सहरिया जनजाति—जो कि भारत सरकार द्वारा आदिम जनजाति घोषित है—को जंगल से धकेलते-धकेलते किनारे बंजर-ऊसर ज़मीनों तक धकेल दिया गया है, जहां न उनके पास जोतने लायक खेत हैं, न सिंचाई के लिए कुआं, न खाने के ठीक अनाज।

नतीजतन, आज सहरिया समुदाय भारत का सबसे कुपोषित समुदाय है और सबसे कम साक्षर भी। भारत भर में जनजातीय साक्षरता जहां 41.2 फीसद है, वहीं सहरिया जनजाति में यह 28.7 फीसदी ही है। सहरिया महिलाओं में यह प्रतिशत तो 15 फीसद से थोड़ी ही अधिक है।

कूनो पालपुर से जिन 28 गांवों का विस्‍थापन हुआ है, उनमें 24 गांव सहरिया बहुल हैं। सहरिया वह जनजाति है, जिनकी आबादी में 2001 और 2011 की जनगणना के अनुसार लगातार कमी दर्ज की गई है। इसकी सबसे प्रमुख वजह है, इनकी जिंदगी का लगातार मुश्‍किल भरा होता जाना। भूख, कुपोषण, आजीविका का संकट और सबसे महत्वपूर्ण; जंगलों पर खत्‍म होती इनकी निर्भरता ने समुदाय के सामने पहचान का संकट खड़ा कर दिया है।

विस्‍थापन से पहले सहरिया कूनो पालपुर के 345 वर्ग किलोमीटर में फैले घने जंगलों में लघु वनोपज, कंद-मूल, जड़ी-बूटियां, गोंद, चिरौंजी और महुआ बीनकर उन्‍हें बाजार में बेचकर अच्‍छा-खासा मुनाफा कमा लेते थे। सहरिया अच्‍छे शिकारी भी होते हैं। जंगली खरगोश, बत्तख वगैरह का शिकार उनके लिए मांस का स्रोत हुआ करता था। इससे उनके लिए प्रोटीनयुक्त खाना मिल जाया करता था। इसके अलावा वे जंगलों में झूम खेती के जरिए अपने लिए मोटे अनाज, चना, कई तरह की साग-सब्‍जियां उगा लेते थे।

श्‍योपुर जिला अमूमन सूखा प्रभावित रहा है। इसके बावजूद सहरिया आदिवासियों में इस कदर कुपोषण और बच्‍चों की मौत के मामले देखने को नहीं मिलते थे। इनमें मवेशी पालने का भी अच्छा शऊर था, ऐसे में उन्‍हें खाने लायक दूध, दही, घी तो मिल ही जाता था। जंगलों पर उनका आश्रित होना इस बात से झलकता है कि उनकी आमदनी का पचास से पैंसठ फीसदी हिस्‍सा गैर-जलाऊ सामान को बाजार में बेचकर हासिल हो जाता था। इसके अलावा उन्‍हें जंगलों से सूखी लकड़ियां, चारा और घरेलू इस्‍तेमाल के सामान भी मिल जाते थे़।

विकास के क्रम में, या फिर वन्य जीव संरक्षण जैसी गतिविधियों में कई दफा विस्थापन अपरिहार्य बन जाता है। लेकिन, ऐसे में अपनी जड़ों से उजाड़े लोगों को ससमय, उचित मुआवाज़ा, ज़मीन, रोज़गार, स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाएं भी दी जानी चाहिएं। आखिर, शेर-चीतों को बचाते-बचाते हम अपने इंसानों को ब्रह्माजी की कहानी की तरह हाशिए पर धकेल तो नहीं सकते।

मंजीत ठाकुर