Monday, December 25, 2017

मधुपुर का तिलक विद्यालय

मधुपुर. अपने कस्बाई खोल से शहरी ढांचे में ढलने के लिए यह शहर ज़रूर छटपटा रहा होगा, लेकिन जो लोग शहरों में रहते हैं, वे ही बता सकते हैं कि महानगरों के जीवन में जो संकीर्णता और भागमभाग होती है, वह अपनी जड़ों की याद दिलाती है. दिलाती रहती है.

हर किसी को अच्छा लगेगा कि उनका शहर आगे बढ़े और तरक्की करे.

लेकिन अगर नगर नियोजन सही हो, तो भी सपनों और हकीकत में फासले कम रखने चाहिए. आखिर हर शहर, क़स्बे और गांव की एक आत्मा होती है. नकल में वह मर जाएगी. आपको अच्छा लगेगा कि आपके शहर के दूसरे मुहल्ले या अपने ही मुहल्ले को लोग आपसे अनजान रहें!

तो एक सवाल यही उठता है कि क्या सब ठीक ठाक है? क्या मधुपुर एक बेहतर शहर के रूप में विकसित हो रहा है? पर इसकी परीक्षा कभी कभी अतीत के उन 'टिप्स' से मालूम हो सकता है जो हमारे महान लोगों ने दिया था. खासकर जो लोग शहर का 'मास्टर प्लान' बनाते हैं, बनाना चाहते हैं या बना रहे हैं.

मुझे नहीं मालूम कि मधुपुर के लोग मधुपुर को कितना बड़ा शहर बनाना चाहते हैं, लेकिन मैं चाहता हूं कि मधुपुर सभी शहरी सुविधाओं से युक्त तो हो लेकिन उतना ही छोटा, उतना ही प्यारा, उतना ही हरा-भरा बना रहे. नदियों में पानी रहे, झरने बहते रहे, लोग प्यारे रहें, कुछ सड़कें कच्ची रहें, धान के खेत रहे, भेड़वा और गोशाला मेला बना रहे...

कुछ दिन पहले भाई रामकृपाल झा ने मधुपुर के इतिहास के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की थी. इस विषय पर उमा डॉक्यूमेंटेशन सेंटर के सर्वेसर्वा उत्तम पीयूष ने बहुत काम किया है. लेकिन मैंने अपने स्तर पर जो जानकारी जुटाई है उसे साझा करने की कोशिश कर रहा हूं. अपने पहले के पोस्ट में मैं तिलक विद्यालय के दिनों की चर्चा कर रहा था, वह चर्चा जारी रहेगी और कोशिश करूंगा कि इसी बहाने कुछ इतिहास भी आए.

आपमें से अधिकतर को पता होगा कि अपने कस्बेनुमा शहर में कितनी विशिष्टता थी. सन् 1925 में जब महात्मा गांधी मधुपुर पधारे और उन्होंने तब एक 'राष्ट्रीय शाला '(नेशनल स्कूल) तिलक विद्यालय और नगरपालिका का उद्घाटन किया था. यह बड़ी और ऐतिहासिक घटना है मधुपुर के संदर्भ में. एक ज्ञान और राष्ट्रीयता का अलख जगाने वाले केंद्र और एक शहरी जीवन को सिस्टम देने वाला केंद्र. यह बड़ी बात थी. बड़ा संयोग.

तिलक कला विद्यालय अपने पीछे स्वर्णिम इतिहास लिए खड़ा है. बापू उस दौरान आजादी की लड़ाई के साथ-साथ लोगों में स्वदेशी और खादी अर्थशास्त्र के प्रति भी जागरूकता फैला रहे थे. एक पत्र से इस बात की जानकारी मिली है. इससे पता चलता है कि छात्रों के जरिए सूत कताई को लोकप्रिय बनाने के प्रति वे काफी संजीदा थे. पत्र के अनुसार, बापू आठ अक्टूबर 1934 को पहली बार मधुपुर आए थे. उन्होंने नौ अक्टूबर 1934 को ऐतिहासिक तिलक कला विद्यालय के विषय में पत्र लिखा था. उसमें इस विद्यालय के बारे में जिक्र किया गया है. कहा गया है कि यहां पर राष्ट्रीय शाला का आयोजन किया गया था. वहीं प्रधानाध्यापक ने अभिनंदन पत्र के माध्यम से तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था का जिक्र करते हुए विद्यालय की समस्याओं की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया था.

इसमें कहा गया था कि सूत कताई के कारण विद्यालय में लड़कों की उपस्थिति कम हो रही है. साथ ही लोगों की तरफ से विद्यालय को कम आर्थिक सहायता मिल रही है. कुछ लोगों ने अपने बच्चों को सिर्फ इसलिए हटा लिया है क्योंकि कार्यशाला में सूत कताई का विषय अनिवार्य कर दिया गया है. इस अभिनंदन पत्र में बापू से मुश्किलों से बाहर निकलने का मार्ग पूछा गया था.

बापू का जवाब थाः यदि शिक्षकों को अपने कार्य में श्रद्धा है तो उन्हें निराश नहीं होना चाहिए. सभी संस्थाओं को भले बुरे दिन देखने पड़ते हैं और यह स्वाभाविक ही है. उनकी ये कठिनाई उनकी परीक्षा है. दृढ़ विश्वास के बल पर भीषण तूफान का भी सामना किया जा सकता है. यदि शिक्षकों को पूर्ण विश्वास है कि वे पाठशाला के जरिए आसपास के लोगों को विकास का संदेश दे रहे हैं तो उन्हें बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए. कुछ ही दिनों में उन्हें वहां के अभिभावकों से अनुकूल सहयोग मिलने लगेगा. लेकिन यदि उनके इस कार्य में वहां के लोगों का जल्दी सहयोग नहीं मिले तो उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है. पाठशाला में एक भी छात्र रहे तो उन्हें उसे चलाते रहना है, क्योंकि नए विचार का शुरूआत में लोग विरोध जरूर करते हैं.

सुना है मधुपुर के इस ऐतिहासिक तिलक विद्यालय में महात्मा गांधी और भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़ी कई स्मृतियां आज उपेक्षा की वजह से संकट में हैं. आजादी से पहले 1925 से 1942 तक तिलक विद्यालय मधुपुर के स्वतंत्रता सेनानियों की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब अंग्रेजों ने कुछ प्रमुख सेनानियों को कैद करने की कोशिश की थी तो वे लोग भूमिगत हो गए और गुस्से में अंग्रेजों ने विद्यालय के पुस्तकालय को ही जला दिया.

1936 में डॉ राजेंद्र प्रसाद मधुपुर आए थे. यहां उनको आजादी के दीवानों से मुलाकात करनी थी. इसी स्कूल में राजेंद्र बाबू ने एक रात बिताई थी. पुआल का बिछौना लगा और पाकशाला में भोजन बना. बाद में प्रांतीय चुनावों (1937) के वक्त भी राजेंद्र बाबू मधुपुर आए थे.

गांधी जी ने तिलक विद्यालय से जाकर उन्होंने मधुपुर, मधुपुर के कुदरती सौंदर्य और नगरपालिका पर जो कुछ लिखा वह आज भी 'संपूर्ण गांधी वांङमय', खंड- 28 (अगस्त-नवंबर 1925) में सुरक्षित है. आप और हम समझें कि कोई महानायक कैसे छोटी से छोटी लगती बातों पर गौर करते हैं, उसे समझते और लिखकर या बोलकर समझाते हैं. और उसके निहितार्थ आप भी समझें कि आखिर इस छटपटाते से शहर को कैसे विकसित करें. गांधीजी ने मधुपुर के संदर्भ में, नगरपालिका के दायित्व से जुड़ी बातें लिखी थी. क्या ये बातें जो मधुपुर के प्राकृतिक सौंदर्य और स्थानीय स्वशासन से जुड़ी हैं क्या आज भी प्रासंगिक हैं?

उन्होंने कहा था, "हमलोग मधुपुर गए. वहां मुझे एक छोटे से सुंदर नए टाउन हाल का उद्घाटन करने को कहा गया था. मैंने उसका उद्घाटन करते हुए और नगरपालिका को उसका अपना मकान तैयार हो जाने पर मुबारकबाद देते हुए यह आशा व्यक्त की कि वह नगरपालिका मधुपुर को उसकी आबोहवा और उसके आसपास के कुदरती दृश्यों के अनुरूप ही एक सुंदर जगह बना देगी. मुंबई व कलकत्ता जैसे बड़े शहरों को सुधार करने में बडी मुश्किलें पेश आती हैं मगर मधुपुर जैसी छोटी जगहों में भी नगरपालिका की आमदनी बहुत ही थोड़ी होते हुए भी उन्हें अपनी अपनी हद में आने वाले क्षेत्र को साफ सुथरा रखने में मुश्किलों का सामना भी नहीं करना पड़ता."

1925 के बाद शहर, साधन और सुविधाएं काफी बदल गयी है. जनसंख्या का दबाब और शहरीकरण की दिक्कतें भी बढ़ी हैं. नेता भी बदल गए हैं. आज का आक्रामक नेतृत्व क्या यह जानता भी है कि गांधी ने मधुपुर के बारे में क्या कहा था? नगरपालिका के कर्ता-धर्ताओँ ने कभी सोचा भी कि हमें महात्मा गांधी के मधुपुर के संदर्भ में कहे गए विचारों को न केवल वर्तमान 'नगरपर्षद' पर कहीं शिलालेख पर उत्कीर्ण कराना (लिखाना) चाहिए बल्कि उनके विचारों को समझने और अनुकरण करने का भी प्रयास करना चाहिए?

उन्हें न तो समझ होगी, न फुरसत होगी. होती तो करा दिए होते.

तिलक विद्यालय के मजेदार पलो पर पोस्ट अगली दफा.

Wednesday, December 20, 2017

भाजपा के हाथों से खिसक रही गांव की जमीन

गुजरात के चुनाव नतीजों को लेकर न जाने कितनी बातें कहीं जाएंगी. लेकिन नतीजों का रणनीतिक विश्लेषण अभी भी प्रासंगिक होगा क्योंकि अगले साल चार बड़े राज्यों में चुनाव होने हैं और लोकसभा चुनावों में महज अठारह महीने बाकी हैं. इस निगाह से देखें तो गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को झटका खाना पड़ा है और उसमें भी सौराष्ट्र क्षेत्र उसके लिए दुःस्वप्न सरीखा ही रहा.

मिसाल के लिए, उत्तरी गुजरात के ग्रामीण इलाकों में जहां 2012 में मोदी की रैलियों के दौरान भारी-भरकम भीड़ जमा हुई थी वहां पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन नहीं किया. गुजरात में करीब दो साल पहले दिसंबर में हुए जिला पंचायत चुनाव में कांग्रेस ने 31 में से 23 सीटों पर भाजपा को शिकस्त दी.

तालुक चुनाव में भी भाजपा के मुकाबले कांग्रेस को अच्छी खासी सीटें मिलीं थीं. इन दोनों चुनाव के नतीजों को 2017 के नतीजों के मिला दें तो ग्रामीण गुजरात में भाजपा की खिसक चुकी जमीन का मसला सच साबित होता है. गुजरात के गांव भाजपा के लिए चुनौती बने और कांग्रेस के लिए गुजरात में वापसी बल्कि यह कहें कि पैर जमाने के मौके के तौर पर आए, और कांग्रेस एक हद तक उसमें कामयाब भी रही.

हालांकि भाजपा ने पूरी कोशिश की थी कि ग्रामीण इलाके में उसका वोट बैंक नहीं टूटे, यदि किसी वजह से इन्हें टूटने से नहीं बचाया जा सके तो कम से कम वोटरों को कांग्रेस की तरफ एकजुट होने से तो रोका ही जाए. भाजपा की यह रणनीति ही बयान कर रही थी कि पार्टी रक्षात्मक मुद्रा में है. आखिर, जीएसटी, गन्ना और मूंगफली के मूल्यों को आखिर पलों में समर्थन देना ऐसा ही कदम था. जरा इलाकावार देखिएः

सौराष्ट्र इलाके में कुल 54 विधानसभा सीटें हैं. 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने यहां 35 सीटें हासिल की थीं, लेकिन इस बार उसे 23 सीटों से संतोष करना पड़ा. पूरे राज्य में सौराष्ट्र ही एकमात्र क्षेत्र रहा जहां भाजपा-कांग्रेस के बीच सीट शेयर का अंतर सकारात्मक से नकारात्मक की तरफ गया. तो इस बदलाव का क्या अर्थ है? क्या सिर्फ भौगोलिक विभाजन या इसके कोई आर्थिक संकेत भी हैं?

निश्चय ही, आर्थिक कारक अधिक मजबूत कारण बने. अब यह बात हर किसी को पता है कि गुजरात के गांवों में भाजपा के जनाधार को चोट पहुंची है. अगर क्षेत्रवार बात करें तो हर क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में मतदाता भाजपा से नाराज दिखा है.

उत्तर गुजरात में करीब 90 फीसदी सीटें ग्रामीण इलाके की हैं, जबकि दक्षिण गुजरात में सिर्फ 50 फीसदी. सौराष्ट्र में 75 फीसदी और मध्य गुजरात में ग्रामीण सीटों की संख्या 63 फीसदी है. जैसी कि उम्मीद थी कांग्रेस ने उत्तर गुजरात और सौराष्ट्र क्षेत्र में भाजपा पर सीटों की संख्या के मामले में बढ़त बना ली. इन दोनों इलाकों में कांग्रेस को क्रमशः 53.1 और 55.56 फीसदी सीटें हासिल हुईं.

दोनों पार्टियों के प्रदर्शन में क्षेत्रवार अंतर की वजहें सीटों की प्रकृति में छिपी हैं. कुछ नहीं, एक आसान सा आंकड़ा स्थिति स्पष्ट कर देता है. राज्य स्तर पर दोनों पार्टियों के बीच सीट शेयरिंग में करीब 12 फीसदी का फासला है. लेकिन इसी आंकड़े को इलाकावार देखें तो इसमें काफी उतार-चढाव भी है. शहरी और ग्रामीण सीटों पर अलग-अलग विश्लेषित करने पर इस अंतर में पर्याप्त कमी आती है.

क्षेत्रवार सीटों का अंतर ग्रामीण इलाकों में कम और शहरी इलाकों में अधिक है. इसका मतलब यह हुआ कि ग्रामीण गुजरात में भाजपा के खिलाफ असंतोष अधिक मुखर था. 2012 में ऐसा नहीं था. ग्रामीण इलाकों में भी भाजपा का प्रदर्शन सौराष्ट्र में कांग्रेस के प्रदर्शन से बेहतर था. तब उसे सौराष्ट्र की 40 ग्रामीण सीटों में से 24 और दक्षिण गुजरात में 15 में से 9 सीटें हासिल हुई थीं. तो इस बार क्या बदल गया?

गुजरात में सौराष्ट्र का इलाका कपास उत्पादक क्षेत्र है. 2012 के बाद से कपास की कीमतें औंदे मुंह गिरी हैं. शायद दक्षिण गुजरात के किसानों को सौराष्ट्र के किसानों जैसी मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ा हो क्योंकि वहां, कपास नहीं गन्ना प्रमुख फसल है. गन्ने के फसल की कीमत मूंगफली या कपास की तरह धड़ाम नहीं हुई थी. ऐसे में दक्षिण गुजरात में कांग्रेस और भाजपा के बीच ग्रामीण इलाकों में मुकाबला बराबरी पर छूटा है.

खैर, गुजरात में तो हाथी भी निकल गया और उसकी पूंछ भी, लेकिन भाजपा के सामने बड़ी चुनौती होगी राजस्थान और मध्य प्रदेश में अपनी सत्ता बचाए रखना. आखिर, गांवों के अपने छीजते जनाधार को बचाए रखन पाने में अगर भाजपा नाकाम रही तो 2019 में अपने बूते बहुमत में आऩा टेढ़ी खीर साबित होगा.



Tuesday, December 19, 2017

मेरा मधुपुरः शिक्षकों के हाफिज सईद थे हेड सर

तिलक कला मध्य विद्यालय सरकारी स्कूल था. जब हमने स्कूल की चौथी कक्षा में एडमिशन लिया था, वह सन् 87' का साल था. देश भर में सूखा पड़ा था. मास्टर साहेब लोग अखबार बांचकर बताते थे कि कोई अल-नीनो प्रभाव है. हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ता था. लेकिन उस अकाल के मद्देनजर सरकार ने यूनिसेफ से प्रायोजित दोपहर का भोजन किस्म की योजना चलाई थी.

हर दोपहर पांचवीं कक्षा के हमारे क्लास टीचर अशोक पत्रलेख पूरी कक्षा में हर बच्चे को कतार में खड़ा कर भिंगोया हुआ चना देते थे. हालांकि, ज्यादातर चना उनके घर में घुघनी (बंगाली में छोले को घुघनी कहते हैं) बनाने के काम आता था.

अशोक पत्रलेख से जुड़ा एक वाक़या हमारे सीनियर पंकज पीयूष ने फेसबुक पर शेयर किया है. पंकज भैया ने मुझे पढ़ाया भी है. वह भी तिलक विद्यालय के छात्र थे. मुझसे करीब एक दशक पहले. उनका दौर था सन् 1979 से 1982 तक. उन दिनों महेंद्र बाबू (अब स्वर्गीय) स्कूल के हेड मास्टर हुआ करते थे. उन दिनों गजानन सर, महानंद सर, अशोक पत्रलेख, विजय सिंह सर के अलावा आरिफ सर और मौलाना सर भी थे. और तब पंकज भैया शायद सातवीं क्लास में थे.

वह याद करते हुए बताते हैं कि उन दिनों यानी सन् 1981 में निर्मल सर और ख़ुशी सर ने हाल-हाल ही में जॉइन किया था. पंकज भैया ने लिखा है, "मुझे याद है कि जिस पूजा के दिन जैसे विश्वकर्मा पूजा, अनंत चतुर्दशी, कर्मा, सरहुल आदि के दिन स्कूल में छुट्टी घोषित नहीं रहती थी, तो क्लास में हाज़िरी बनने के बाद, अशोक सर मुझसे छुट्टी का आवेदन लिखवाकर हर क्लास के 5-5 बच्चों से हस्ताक्षर करवाने भेजते थे और फिर मैं डरते हुए उस आवेदन को लेकर हेड सर के चैम्बर में जाता था. वे मुझे और इस आवेदन को देखकर मुस्कराते हुए जानबूझ कर पूछते थे कि अशोक (सर) ने लिखवाया है?"

हालांकि पंकज भैया इनकार करते थे लेकिन सच तो सबको पता था.

उनके साथियों में यह भरोसा भी था कि स्कूल में छुट्टी जल्दी करानी हो तो दोनों आंख से पलकों के बाल निकाल कर टीचर के जूते में डाल दो... देखना छुट्टी की घंटी बज़ जाएगी,

यह फॉर्मूला कितना सही होता था यह तो पंकज भैया और उनके साथी ही जानें लेकिन एक दशक बाद के छात्रों में, यानी हम लोगों तक आते-आते मासूमियत थोड़ी क्रूरता में बदलने लगी थी. 1989 के दौर के छात्र तिलक विद्यालय के बड़े से अहाते में कभी कभार कबड्डी और अमूमन रबर की गेंद से एक दूसरे को पीटने वाला क्रूर खेल बम-पार्टी खेला करते थे. हमारी पीठ पर गेंदो की मार से निशान और चकत्ते उभर आते. लेकिन वो दाग़ अच्छे थे.

स्कूल के अहाते में यूकेलिप्टस के कई ऊंचे-मोटे पेड़ थे. जिनकी जड़ों के पास दो खोमचे वाले अपना खोमचा लगाते. ये खोमचे वाले भुने चने को कई तरह से स्वादिष्ट बनाकर बेचते. उनके पास मटर के छोले होते, खसिया (आधा उबले चने को नमक मिर्च के साथ धूप में सुखाने के बाद बनाया गया खाद्य) फुचका, जिसे गुपचुप कहा जाता या बाद में जाना कि असली नाम गोलगप्पे हैं. वैसे मधुपुर का गुपचुप लखनऊ में पानी बताशा, मुंबई में पानीपूरी, दिल्ली में गोलगप्पे और कोलकाता में फुचका के नाम से मशहूर है. लेकिन जो स्वाद गुपचुप में था वह इसके किसी और अपररूप में नहीं.

इन्हीं ठेलों पर बिकता था एक बेहद खट्टा नींबू जिसे काले नमक के साथ खाया जाता था. यह मुझे कत्तई पसंद न था. खट्टा खाना मुझे आज भी नापसंद है.

अहाते में कई पेड़ अमड़े के भी थे. अमड़ा जिसे अंग्रेजी में वाइल्ड मैंगो या हॉग प्लम भी कहते हैं. हिंदी में इसको अम्बाडा कहते हैं.

मधुपुर में बांगला भाषा का बहुत असर था, इसलिए हम इसे अमड़ा ही कहते. इसके फूल वसंत की शुरुआत में आते थे. इनके फूल भी हम कचर जाते. हल्का खट्टापन, हल्का मीठापन... सोंधापन फाव में.

अमडा जब फल जाता तो उसकी खट्टी और मीठी चटनी बनाई जाती. यह हमारे स्कूल के आसपास का खाद्य संग्रह था...डार्विन ने अगर शुरुआती मानवों को खाद्यसंग्राहक माना था तो हम उसे पूरी तरह सच साबित कर रहे थे.

लेकिन, इन खाद्यसंग्रहों के बीच पढ़ाई अपने तरीके से चल रही थी...पढ़ाई का तरीका कुछ वैसा ही था जैसा 19वीं सदी की शुरुआत में हुआ करता होगा.

हम लोग हाथों में मध्यावकाश तक पढ़ाई जाने वाली चार किताबें और कॉपियां लेकर स्कूल जाते. बस्ते का तो सवाल ही नहीं था. भोजनावकाश में दौड़कर घर जाते, खाना खाकर, वापस स्कूल लौटने की जल्दी होती.

हम जितनी जल्दी लौटते उतना ही वक्त हमें खेलने के लिए मिलता. लड़कियां इस खाली वक्त में पंचगोट्टा खेलतीं थी. पांच पत्थर के टुकड़े, हथेलियों में उंगलियों के बीच से बाहर निकालने का खास खेल, हम बम पार्टी या कबड्डी खेलते... क्रिकेट के लिए शाम का वक्त सुरक्षित रखा जाता.

इन्हीं में विभिन्न मास्टर साहबों के करतब थे, जिनकी चर्चा अगली पोस्ट में करूंगा. निर्मल सर, खुशी सर, विजय सर से लेकर चंद्रमौलेश्वर सिंह यानी हमारे वक्त के हेड मास्टर साहेब...

वह इन सभी आतंकवादी मास्टरों के सरगना थे. समझिए शिक्षकों के हाफिज सईद.



क्या शेर का क़द वाक़ई एक बिलान छोटा हो गया है?

गुजरात विधानसभा में भाजपा की सरकार बन गई है. 22 साल से गुजरात में सत्ता से दूर कांग्रेस फिर से विपक्ष में बैठेगी. लेकिन गुजरात के चुनाव ने साफ कर दिया है कि कांग्रेस अध्यक्ष बने राहुल गांधी हार कर बाजीगर बने या न बने हों, लेकिन मोदी की लहर की दहक कहीं न कहीं कमजोर हुई है.

मेरी इस बात से कुछ लोग इत्तफाक नहीं रखेंगे और कहेंगे कि जीत तो आखिर जीत होती है.

लेकिन, गुजरात मोदी का है. पार्ट टाइम मुख्यमंत्री बनने से लेकर 2014 में लोकसभा में प्रचंड बहुमत पाने तक मोदी एक लहर थे. मुझे याद है एक दफा गुजरात में नीलोफर नाम के तूफान आऩे का खतरा था और तब राजकोट में मुझे एक चाय की दुकान पर किसी ने कहा थाः कोई तूफान नहीं आएगा, क्योंकि यहां का तूफान तो दिल्ली चला गया.

उस चायवाले का यह बयान कहता था कि गुजरात का आम आदमी मोदी पर किस कदर गर्व करता था. उस जगह पर मोदी की भाजपा अगर 115 के पुराने (2012 चुनाव) के आसन से नीचे खिसकती है तो इसको गुजरात के शेर के कद का एक बिलान कम होना ही मानिए.

ज़रा वोट प्रतिशत की तरफ ही ध्यान दीजिए. एग्जिट पोल के परिणाम यही बता रहे थे कि राहुल गांधी की मेहनत गुजरात में कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ाने वाली है. नतीजों से भी साफ है कि टीम राहुल ने समाज के सभी वर्गों को साथ लाकर न केवल पार्टी का वोट बैंक और वोट शेयर बढ़ाया है बल्कि गुजरात विकास के मॉडल को भी सवालों के घेरे में खड़ा किया है.  

खासकर गांवों में तो कांग्रेस ने अपना वोट शेयर और सीटें दोनों में ही इजाफा किया है. गांवों से खिसकते जनाधार और गांव और शहर के अलग मिजाज़ से वोट करने के क्या सियासी मायने हैं और उसके क्या नतीजे होंगे, वह एक अलग विमर्श की विषय वस्तु है.

पिछले विधानसभा में भाजपा को 47.85 फीसदी, कांग्रेस को 38.93 फीसदी और अन्य को 13 फीसदी वोट मिले थे. यानी कांग्रेस भाजपा से महज 9 फीसदी वोटों से पीछे थी. 2017 के एग्जिट पोल के मुताबिक बीजेपी को 47 फीसदी वोट मिलने की संभावना है जबकि कांग्रेस को 42 फीसदी वोट की. अभी तक के आंकड़ों के मुताबिक कांग्रेस को 41.4 फीसदी वोट मिले हैं. हार के बावजूद कांग्रेस के वोट शेयर में भाजपा की तुलना में बढोत्तरी हुई है. हालांकि वोट शेयर भाजपा का भी बढ़ा है लेकिन पिछले चुनाव की तुलना में सीटें कम हो रही हैं.

इस गुजरात को जीतने के लिए मोदी को अपने पसंदीदा विकास के मुद्दे से बेपटरी होना पड़ा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी अधिकांश चुनावी रैलियों में विकास की बजाय राहुल गांधी पर निजी हमले करते रहे. इसकी बजाय राहुल ने सायास अपनी छवि मृदुभाषी युवा की बनाई. जाहिर है, उनकी टीम ने राहुल की छवि गढ़ने पर बहुत मेहनत की क्योंकि पिछले चुनावों में कीचड़ राहुल पर उछलकर उनकी छवि खराब की गई थी.

इस तमाम मेहनत के बावजूद अमित शाह 150 सीटों के अपने लक्ष्य से काफी दूर ही रुक गए.

जबकि गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर रैली में इस चुनाव को खुद से जोड़ा और खुद ही जिताने की अपील की. नरेंद्र मोदी ने गुजरात में कुल 36 रैलियां की थी. अपनी रैलियों में मोदी ने नोटबंदी, जीएसटी, पाटीदार, दलित हर मुद्दे पर आक्रामक रुख अपनाया और सरकार पर लगे आरोपों का बचाव तो किया ही सख्ती से जवाब भी दिया.

गुजरात का चुनाव शुरू तो हुआ था विकास के नारों के साथ, लेकिन जाति में दुष्चक्र में फंस गया, मणिशंकर अय्यर के नीच वाले बयान को भाजपाई ले उड़े. माफीनामे और राहुल गांधी की सफाई के बावजूद प्रधानमंत्री ने इसे गुजराती अस्मिता से जोड़ दिया. जाहिर है, भाजपा के करीब सौ सीटों में इस भावना के रसायन ने बखूबी काम किया.

गुजरात जीतने के लिए मोदी को पाकिस्तान को भी बीच में घसीटना पड़ा. इस आरोप में प्रधानमंत्री ने डॉ मनमोहन सिंह से लेकर बहुत सारे नेताओं को लपेट लिया. यह और बात है कि ऐसे आरोप किसी चुनावी मंच से लगाने चाहिए या नहीं, खासकर देश के सबसे जिम्मेदार पद पर बैठे करिश्माई नेता से, लेकिन नतीजों में कुछ हिस्सा तो पाकिस्तान का भी ठहरा.

चुनाव प्रचार में कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व का दामन थामना चाह रही थी. अब भाजपा को उसी के टर्निंग विकेट पर हराना मुश्किल था. फिर उसमें मंदिर यात्राओं के दौरान राहुल का नाम किस रजिस्टर में दर्ज है यह भी खूब उछला. फिर राहुल के 'जनेऊधारी' होने के बयान भी आए. इसे कुछ यूं समझ लीजिए कि कांग्रेस की तेज़ गेंदबाजी से बचने के लिए भाजपा ने विकेट की घास साफ करवा दी.

फिर राम मंदिर के मुददे पर कपिल सिब्बल की बयानबाजी और पाटीदार आंदोलन की लहर को थामने की कांग्रेस की कोशिश में बाकी जातियों के खिसक जाने को वजहें बताई जा सकती हैं. लेकिन पटेल वोटों के बिखराव को भाजपा ने दोनों हाथों से समेटा. पटेल फैक्टर वाले 37 में से करीब 20 सीटों पर भाजपा जीत रही है.

लेकिन, फिर सवाल वही घूमकर आता है. क्या गुजरात चुनाव ने ठोस मुद्दे को घुमा-घुमाकर अमूर्त मसलों (हिंदुत्व, जनेऊ वगैरह) पर लाकर, निजी हमले करके. पाकिस्तान को बीच में लाने की जो मजबूरी भाजपा को दिखानी पड़ी, उससे यह नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी की ताकतवर दहाड़ने वाले नेता का करिश्मा कहीं चुक तो नहीं गया!

क्या शेर का क़द वाक़ई एक बिलान छोटा हो गया है?

मंजीत ठाकुर

Saturday, December 16, 2017

मेरा मधुपुरः पढ़ाई लिखाई हाय रब्बा

मेरा बेटा एक प्राइवेट स्कूल की चौथी कक्षा में पढ़ता है. पहली क्लास में उसका एडमिशन का मिशन मेरे लिए कितना कष्टकारी रहा, वह सिर्फ मैं जानता हूं. इसलिए नहीं कि बेटे का दाखिला नहीं हो रहा था. बल्कि इसलिए, क्योंकि एडमिशन से पहले इंटरव्यू की कवायद में मुझे फिर से उन अंग्रेजी कविताओं-राइम्स-की किताबें पढ़नीं पड़ी, जो हमारे टाइम्स (राइम्स से रिद्म मिलाने के गर्ज से, पढ़ें वक्त) में हमने कभी सुनी भी न थीं.

अंग्रेजी स्कूलों से निकले हमारे साथी ज़रूर 'बा बा ब्लैक शीप', 'हम्प्टी-डम्प्टी' और 'चब्बी चिक्स' जानते होंगे, लेकिन बिहार और बाकी के राज्य सरकारों के स्टेट बोर्ड से निकले मित्र जरूर इस बात से सहमत होंगे कि घरेलू स्तर पर छोड़कर औपचारिक रूप से अंग्रेजी से मुठभेड़ छठी कक्षा में हुआ करती थी.

बहरहाल, शिक्षा के उस वक्त की कमियों की ओर इशारा करना मेरा उद्देश्य नहीं. चौथी के मेरे सुपुत्र की किताबों की कीमत छह से सात हजार के आसपास थी. मुझे कुछ-कुछ अंदाजा तो था लेकिन सिर्फ किताबों की कीमत इतनी रहने वाली है इस पर मैं श्योर नहीं था.

मुझे अपना वक्त याद आय़ा. जब मैं अपने ज़माने की, हालांकि हमारा ज़माना इतना पीछे नहीं है, सिर्फ अस्सी के दशक के मध्य के बरसों की बात है, की बात करता हूं तो मुझे लगता है कि हम न जाने कितनी दूर चले आए हैं. बहुत सी बातें एकदम से बदल गईं हैं. 

हालांकि, प्रायः सारे बदलाव सकारात्मक से लगते हैं. लेकिन पढ़ाई के बारे में ऐसा ही कहना, कम से कम पढ़ाई की लागत के बारे में... हम स्वागतयोग्य तो नहीं ही मान सकते.

मेरा पहला स्कूल सरस्वती शिशु मंदिर था. कस्बे के कई स्कूलों को आजमाने के बाद तब के दूसरे सबसे अच्छे स्कूल (संसाधनों के लिहाज से) शिशु मंदिर ही था. हमारे कस्बे का सबसे बेहतर स्कूल कॉर्मेल कॉन्वेंट माना जाता था...अंग्रेजी माध्यम का. पूरे कस्बे में इसमें बच्चे का दाखिला गौरव की बात मानी जाती है, हालांकि जिनके बच्चों का दाखिला इस स्कूल में नहीं हो पाता, वो यह कह कर खुद को दिलासा देते कि स्कूल नहीं पढ़ता बच्चे पढ़ते हैं. और इसकी तैयारी हम घर पर ही करवाएंगे अच्छे से. 

अब यह भी जानिए कि तैयारी किस की? नेतरहाट में या नवोदय में छठी कक्षा में एडमिशन की. नवोदय का तो पता नहीं, लेकिन झारखंड में नेतरहाट ने अपनी साख बचाई हुई है अब तक.

वैसे भी, तैयारी तो खैर क्या होती होगी. हमारा दाखिला सरस्वती शिशु मंदिर में हुआ, दाखिले की फीस थी 40 रुपए और मासिक शुल्क 15 रुपए. यह सन 84' की बात होगी. इसमें यूनिफॉर्म था. नीली पैंट सफेद शर्ट...लाल स्वेटर. बस्ता जरूरी था और टिफिन भी ले जाना होता, जो प्रधान जी के मूड के लिहाज से लंबे या छोटे वाले भोजन मंत्र के बाद खाया जाता.

भोजन के पहले मंत्रो की इस अनिवार्यता सबसे बुरी बात लगती थी. चार साल उसमें पढ़ने के बाद जब फीस बढ़कर 25 रुपये हो गया, और तब घरवालों को लगा कि यह शुल्क ज्यादा है.

बहरहाल, सरस्वती शिशु मंदिर से निकाल कर हमें  तिलक विद्यालय में भर्ती कराया गया, जिसे राज्य सरकार चलाती थी और यह मशहूर था कि गांधी जी उस स्कूल में आए थे. गांधी जी की वजह से पूरे कस्बे में यह स्कूल गांधी स्कूल भी कहा जाता. एडमिशन फीस 5 रुपये, और सालाना शुल्क 12 रुपये.

गांधी स्कूल की खासियत थी कि हम 10 बजे स्कूल में प्रार्थना करने के बाद, जो कि हमारे लिए बदमाशियों का सबसे टीआरपी वक्त होता था, सफाई के लिए मैदान में इकट्ठे होते थे. स्कूल के अहाते में चारों तरफ शीशम, सागवान और यूकेलिप्टस के ऊंचे-ऊंचे पेड़ थे और उसके पत्ते अहाते में गिरते तो उसे साफ कौन करेगा? स्कूल में कोई चतुर्थवर्गीय कर्मचारी नहीं था. स्कूल में शौचालय भी नहीं था. स्कूल में हैंडपंप था, लेकिन कई बरसों से खराब था. 

स्कूल में अगर कुछ था, तो मास्टर थे, छात्र थे. कड़क अनुशासन था. पिटाई थी. गजानन सर थे, महानंद सर थे. इन सरों के सर के तापमान के बारे में बाद में.

मैदान में पत्ते और कागज चुनने के बाद, क्लास के फर्श की सफाई का काम होता। लाल रंग के उस ब्रिटिश जमाने के फर्श पर ही बैठना होता था इसलिए सफाई जरूरी थी. यह काम रोल नंबर के लिहाज से बंधा होता.

उस वक्त भी, जो शायद 1987 का साल था, किताबों की कीमत हमारी ज़द में हुआ करती थी. पांचवी क्लास में विज्ञान की किताब की कीमत 6 रुपये 80 पैसे थी और उसे कोर्स की सबसे मंहगी किताब माना जाता था. बिहार टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन पाठ्य पुस्तकें छापा करती थी, जिनमें सबसे सस्ती थी संस्कृत की किताब और सबसे मंहगी विज्ञान की.

उसमें भी घरवालों की कोशिश रहती कि किसी पुराने छात्र से किताबें सेंकेंडहैंड दिलवा दी जाएं. आधी कीमत पर. किताब कॉपियां हाथों में ले जाते. सस्ते पेन...बॉल पॉइंट में भी कई स्तर के...25 पैसे वाली बॉल पॉइंट का पॉइंट पीतल का होता, उससे मोटी लिखाई होती. 35 पैसे वाले थोड़ी ठीक होती, लेकिन 75 पैसे में बॉल पॉइंट रीफिल का पॉइंट स्टील का होता था, और वह पाने के लिए ज्यादातर छात्र अपने बड़े भाईयों, पिता, या माताओं के सामने घिघियाते थे. (अगर दिलचस्पी लिखने में होती थी) 

कलमों के इस परिदृश्य को रेनॉल्ड्स ने बदल दिया, उस पर अगली पोस्ट में लिखेंगे.

जिन दिनों की बात मैं कर रहा हूं तब स्याही का इस्तेमाल धीरे धीरे कम तो हो रहा था, लेकिन फैशन से बाहर नहीं हुआ था. उस वक्त बिहार सरकार द्वारा वित्त प्रदत्त सब्सिडी वाले कागजों से वैशाली नाम की कॉपियां आतीं थीं...जिन पर गत्ते की जिल्द चढ़ी होती. अब हमारी गुरबत पर न हंसिएगा...वैशाली की कॉपी में नोट्स बनाना मेरे और मेरे दोस्तों का बड़ा ख्वाब हुआ करता. मध्यम मोटाई की कॉपी दो रुपये की आती थी...हमारी सारी बचत वही खरीदने में खर्च होती. 

हमारे स्कूल (तिलक विद्यालय) में ज्यादातर ब्लैक बोर्ड का ब्लैकनेस घिसकर सुफेद हो रखा था. आज बेटे के स्कूल में कंप्यूटरों की भरमार है. एक कक्षा में तीन तीन तरह के बोर्ड हैं. वाइट बोर्ड, ग्रीन बोर्ड और एक और प्रोजेक्टर की स्क्रीन.  

पता नहीं, इतने किस्म के बोर्ड पर क्या पढ़ लेते हैं बच्चे और क्या पढ़ा लेते हैं शिक्षक! इनसे पढ़ाई होती तो पहले के मुकाबले शायद हम ज्यादा रामानुजम, ज्यादा बसु, ज्यादा शांति स्वरूप भटनागर और ज्यादा भाभा पैदा करते. 

स्कूलों की फीस की रकम देखिए...पढ़ाई महंगी हो गई है या वक्त का तकाजा है...या लोग संपन्न हो गए है या पढ़ाई सुधर गई है...कस्बे और शहर का अंतर....वही सोच रहा हूं. 

सरकारी स्कूलों में पढ़कर और जिंदगी के ढेर सारे साल गरीबी में बिताकर हमने खोया है या पाया है...

Monday, December 11, 2017

राहुल अब शहज़ादे नहीं रहे!

तेरह साल तक टालते रहने के बाद नेहरू-गांधी खानदान के वारिस ने आखिरकार कांग्रेस की कमान तो संभाली लेकिन सवाल यही है कि क्या वह इस सबसे पुरानी औप पस्त पड़ी पार्टी में नई जान फूंक पाएंगे? खासकर तब, जब मौजूदा समय में सियासी परिस्थितियां तकरीबन कांग्रेसमुक्त भारत की तरफ ही बढ़ रही हैं.

16 दिसंबर से (संयोग है कि यह विजय दिवस भी है) राहुल कांग्रेस के अध्यक्ष का पदभार संभालेंगे. अब यह और बात है कि यह जिम्मेदारी उनके लिए पद की तरह रहता है या भार की तरह. हाल तक, गाहे-ब-गाहे कुछ मौकों को छोड़कर राहुल गांधी ने ज्यादा कुछ ऐसा किया नहीं कि उन पर भरोसा किया जा सके.

उनके लिए पहली चुनौती तो यही होगी कि वह खुद पर नेहरू-गांधी खानदान के छठे सदस्य के रूप में बने अध्यक्ष का तमगा छुड़ा सकें. भाजपा ने उन पर नाकामी का ठप्पा चस्पां करने में सोशल मीडिया मशीनरी का बखूबी इस्तेमाल किया है.

हालांकि, पिछले तेरह साल में राहुल गांधी लगातार कमजोर और हाशिए पर पड़े वंचित तबके की आवाज बनने की कोशिश करते रहे. लेकिन उनकी कोशिशें बड़े कदम की बजाय प्रतीकात्मक ही रहीं.

जरा तारीखवार गौर करें,

2008 में राहुल गांधी ओडिशा के कालाहांडी जिले के नियामगिरि में डंगरिया कोंध आदिवासियों के साथ खड़े हुए और कांग्रेस ने उनको नियामगिरि का सेनापति घोषित किया. बाद में, नियामगिरि में वेदांता को खनन पट्टा रद्द कर दिया गया. अगले साल 2009 में उन्होंने भारत की खोज यात्रा शुरू की था और यूपी के दलितों के यहां खाना खाकर खुद को जमीन से जुड़ा नेता साबित करने की कोशिश की. इसका फायदा 2009 के लोकसभा चुनावों में मिला.

साल 2011 में राहुल किसानों के भूमि अधिग्रहण के खिलाफ भट्टा पारसौल में आंदोलन के हिस्सेदार बने. बाद में केंद्र की यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापना कानून पारित कराया.

इसके अलावा राहुल ने मौका बेमौका कभी मुंबई लोकल में सफर करके, कभ केदारनाथ मंदिर जाकर, कभी अरूणाचल के छात्र नीडो तानियम के लिए खड़े होकर, कभी केरल के मछुआरे के यहां खाना खाकर खुद को स्थापित करने की कोशिश की. कभी वे पटपड़गंज में सफाई कर्मचारियों के साथ धरने पर बैठे तो रोहित वेमुला की खुदकुशी के बाद भाजपा पर टूट पड़े. कन्हैया मामले में भी राहुल गांधी ने सक्रियता दिखाते हुए जेएनयू में जाकर छात्रों से मुलाकात की थी.

लेकिन उनके कुछ कदमों से उनकी भद भी पिटी है.

नोटबंदी के दौरान 4 हजार रु. निकालने के लिए कतार में खड़ा होने और एक बार फटी जेब दिखाने की वजह से वे सोशल मीडिया पर ट्रोल हुए.

राहुल गांधी ट्रोल होने की वजह से भी लोकप्रिय हैं.

लेकिन हालिया महीनों में ट्विटर पर तंज भरे और तीखे ट्वीट करने की वजह से राहुल ने सबको हैरत में डाल दिया है.

लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष बने राहुल गांधी के सामने कई चुनौतियां दरपेश हैं. 1999 से लेकर 2014 तक ही देखें तो कांग्रेस का प्रदर्शन गर्त में चला गया है. 1999 में कांग्रेस को 114 सीटें थी, जो 2004 में 145, 2009 में 206 और अब 2014 में महज 44 रह गई है. इसके बरअक्स भाजपा 182, 138, 116 और 282 पर आई है. कांग्रेस का वोट शेयर भी इन्ही सालों मे क्रमशः 28, 27,29 और 20 फीसदी रहा है.

अब कांग्रेस सुप्रीमो बने राहुल को कुछ काम प्राथमिकता के स्तर पर करने होंगे. इनमें संगठन में नई जान फूंकने से लेकर नई टोली का गठन करना, राज्यों में ताकतवर नेताओं को आगे बढ़ाना, 2019 के लिए कार्यकर्ताओं में जोश लाना, गुटबाजी पर लगाम लगाना और भरोसेमंद और निरंतर सक्रिय (जी हां, छुट्टियों पर विदेश सरक जाने की अपनी आदत छोड़नी होगी) नेता के रूप में पेश होना होगा.

राहुल गांधी के एक भाजपा विरोधी गठजोड़ तैयार करना होगा. लेकिन बिहार में वह नीतीश के अपने पाले में रोक नहीं सके. पीएम बनने की ख्वाहिशमंद ममता उनके लिए दूसरी चुनौती होंगी जो वाम दलों के साथ एक मंच पर शायद ही आएं. दूसरी तरफ, मायावती और मुलायम भी शायद ही हाथ मिलाना पसंद करें.

2019 से पहले राहुल के लिए 2018 भी एक चुनौती बनकर मुंह बाए खड़ा है. जब चार बड़े राज्यों के चुनाव होने हैं. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ भाजपा के सूबे हैं, कर्नाटक में उनकी अपनी सरकार है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पास 230 में से 58 सीटें हैं, 37 फीसदी वोट शेयर है, सूबे के लोकसभा की 29 सीटों में से महज दो कांग्रेस के पास हैं और वोट शेयर 35 फीसदी हैं (यानी वोट शेयर इंटैक्ट है)

राजस्थान में 200 विधानसभा सीटें हैं, इनमें कांग्रेस के पास महज 21 हैं. वोट शेयर भी 33 फीसदी है. राजस्थान से लोकसभा में एक भी सीट कांग्रेस के पास नहीं, लेकिन 31 फीसदी वोट जरूर मिले थे.

छत्तीसगढ़ में 90 विधानसभा सीटें हैं. कांग्रेस के पास इनमें से 39 सीटें हैं. वोट शेयर जरूर बढ़िया 40 फीसदी है लेकिन लोकसभा चुनाव में पासा पलट गया था जब राज्य की कुल 11 लोस सीटों में से कांग्रेस 20 फीसदी वोट हासिल कर सकी और सिर्फ 1 सीट पर जीत दर्ज कर सकी.

कर्नाटक में मामला थोड़ा अलग है. 224 विधानसभा सीटों वाले सदन में कांग्रेस के 122 सदस्य हैं. वोट शेयर 37 फीसदी है. वहां की 28 लोस सीटों में से कांग्रेस ने 9 जीती और वोट शेयर भी 41 फीसदी हासिल किया. यानी कर्नाटक में बहुत सत्ताविरोधी रूझान न हुआ तो कांग्रेस मजबूत स्थिति में रह सकती है. क्योंकि मोदी लहर (कर्नाटक में भाजपा ने 17 सीटें जीती हैं और 43 फीसदी वोट शेयर हासिल किया है) के बावजूद कांग्रेस का वोट शेयर भाजपा से महज 2 फीसदी कम रहा और इसी दो फीसदी वोट ने दोनों पार्टियों के बीच 8 सीटों का अंतर पैदा कर दिया.

बहरहाल, राहुल गांधी अब शहजादे से एक नेता में बदल रहे हैं. वह अब कांग्रेस अध्यक्ष हैं. सत्ता को जहर कहने वाले राहुल को अब पार्टी के ढांचे को नया रंग-रूप देने के साथ-साथ चुनावों में जीत दिलानी ही होगी. क्योंकि सत्ता से ज्यादा दिन दूर रही पार्टी का जनाधार ज्यादा तेजी से खिसकता है.

Sunday, December 3, 2017

निपट अकेला मैं

मैं
निर्जन में,
झुकते कंधों वाला बरगद.
मोनोलिथ पहाड़ में
थोड़ी सी जगह में उग आया.

मैं,
निपट सुनसान में
खुद से बातें करता.
मेरी शाखों पर आकर बैठते तो हैं परिन्दे
मुझे भाता है
उनका आना-बैठना-कूकना-उछलना
पर, परिन्दें नहीं समझते मेरी भाषा
पेड़ की भाषा मैं मौन मुखर होता है.
जो समझ सके
पेड़ की भाषा
इंतजार कर रहा हूं
मैं

Wednesday, October 25, 2017

गुस्सैल नौजवान विजय अब फेंके हुए पैसे भी उठाता है, बांटता भी है

उस दौर में जब राजेश खन्ना का सुनहरा रोमांस लोगों के सर चढ़कर बोल रहा था, समाज में थोड़ी बेचैनी आने लगी थी. आराधना से राजेश खन्ना का आविर्भाव हुआ था. खन्ना का रोमांस लोगों को पथरीली दुनिया से दूर ले जाता, यहां लोगों ने परदे पर बारिश के बाद सुनसान मकान में दो जवां दिलों को आग जलाकर फिर वह सब कुछ करते देखा, जो सिर्फ उनके ख्वाबों में था.

राजेश खन्ना अपने 4 साल के छोटे सुपरस्टारडम में लोगों को लुभा तो ले गए, लेकिन समाज परदे पर परीकथाओं जैसी प्रेम कहानियों को देखकर कर कसमसा रहा था. इस तरह का पलायनवाद ज्यादा टिकाऊ होता नहीं. सो, ताश के इस महल को बस एक फूंक की दरकार थी. दर्शक बेचैन था. उन्ही दिनों परदे पर रोमांस की नाकाम कोशिशों के बाद एक बाग़ी तेवर की धमक दिखी, जिसे लोगों ने अमिताभ बच्चन के नाम से जाना.

मंहगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और पंगु होती व्यवस्था से लड़ने वाली एक बुलंद आवाज़ की ज़रुरत थी. ऐसे में इस लंबे लड़के की बुलंद आवाज़ परदे पर गूंजने लग गई. इस नौजवान के पास इतना दम था कि वह व्यवस्था से खुद लोहा ले सके और ख़ुद्दारी इतनी कि फेंके हुए पैसे तक नहीं उठाता.

गुस्सैल निगाहों को बेचैन हाव-भाव और संजीदा-विद्रोही आवाज़ ने नई देहभाषा दी. उस वक्त जब देश जमाखोरी, कालाबाज़ारी और ठेकेदारों-साहूकारों के गठजोड़ तले पिस रहा था, बच्चन ने जंजीर और दीवार जैसी फिल्मों के ज़रिए नौजवानों के गुस्से को परदे पर साकार कर दिया.
विजय के नाम से जाना जाने वाला यह शख्स, एक ऐसा नौजवान था, जो इंसाफ के लिए लड़ रहा था, और जिसको न्याय नहीं मिले तो वह अकेला मैदान में कूद पड़ता है.

कुछ लोग तो इतना तक कहते है कि अमिताभ के इसी गुस्सेवर नौजवान ने सत्तर के दशक में एक बड़ी क्रांति की राह रोक दी. लेकिन बदलते वक्त के साथ इस नौजवान के चरित्र में भी बदलाव आया. जंजीर में उसूलों के लिए सब-इंसपेक्टर की नौकरी छोड़ देने वाला नौजवान फिल्म देव तक अधेड़ हो जाता है. जंजीर में उस सब-इंस्पेक्टर को जो दोस्त मिलता है वह भी ग़ज़ब का. उसके लिए यारी, ईमान की तरह होती है.

बहरहाल, अमिताभ का गुस्सा भी कुली, इंकलाब आते-आते टाइप्ड हो गया. जब भी इस अमिताभ ने खुद को या अपनी आवाज को किसी मैं आजाद हूं में या अग्निपथ में बदलना चाहा, लोगों ने स्वीकार नहीं किया.

तो नएपन के इस अभाव की वजह से लाल बादशाह, मत्युदाता, और कोहराम का पुराने बिल्लों और उन्हीं टोटकों के साथ वापस आया अमिताभ लोगों को नहीं भाया. वजह- उदारीकरण के दौर में भारतीय जनता का मानस बदल गया था. अब लोगो के पास खर्च करने के लिए पैसा था, तो वह रोटी के मसले पर क्यों गुस्सा जाहिर करे.

उम्र में आया बदलाव उसूलों में भी बदलाव का सबब बन गया. देव में इसी नौजवान के पुलिस कमिश्नर बनते ही उसूल बदल जाते हैं, और वह समझौतावादी हो जाता है.

लेकिन अमिताभ जैसे अभिनेता के लिए, भारतीय समाज में यह दो अलग-अलग तस्वीरों की तरह नहीं दिखतीं. दोनों एक दूसरे में इतनी घुलमिल गए हैं कि अभिनेता और व्यक्ति अमिताभ एक से ही दिखते हैं. जब अभिनेता अमिताभ कुछ कर गुज़रता है तो लोगों को वास्तविक जीवन का अमिताभ याद रहता है और जब असल का अमिताभ कुछ करता है तो पर्दे का उसका चरित्र सामने दिखता है.

अमिताभ का चरित्र बाज़ार के साथ जिस तरह बदला है वह भी अपने आपमें एक चौंकाने वाला परिवर्तन है. जब ‘दीवार के एक बच्चे ने कहा कि उसे फेंककर दिए हुए पैसे मंज़ूर नहीं, पैसे उसको हाथ में दिए जाएं, तो लोगों ने ख़ूब तालियां बजाईं.

बहुत से लोगों को लगा कि यही तो आत्मसम्मान के साथ जीना है. उसी अमिताभ को बाज़ार ने किस तरह बदला कि वह अभिनेता जिसके क़द के सामने कभी बड़ा पर्दा छोटा दिखता था, उसने छोटे पर्दे पर आना मंजूर कर लिया.

फिर उसी अमिताभ ने लोगों के सामने पैसे फ़ेंक-फेंककर कहा, ‘लो, करोड़पति हो जाओ.’ कुछ लोगों को यह अमिताभ अखर रहा था लेकिन ज्यादातर लोगों को बाज़ार का खड़ा किया हुआ यह अमिताभ भी भा गया. अपनी फिल्मों के साथ आज अमिताभ हर मुमकिन चीज बेच रहे हैं. वह तेल, अगरबत्ती, पोलियो ड्रॉप से लेकर रंग-रोगन, बीमा और कोला तक खरीदने का आग्रह दर्शकों से करते हैं. करें भी क्यों न, आखिर उनकी एक छवि है और उन्हें अपनी छवि को भुनाने का पूरा हक है. दर्शक किसी बुजुर्ग की बात की तरह उनकी बात आधी सुनता भी है और आधी बिसरा भी देता है.

बहरहाल, अमिताभ आज भी चरित्र निभा रहे हैं, लेकिन उनके शहंशाहत को किसी बादशाह की चुनौती झेलनी पड़ रही है. हां, ये बात और है कि शहंशाह बूढा ज़रुर हो गया है पर चूका नहीं है. बाज़ार अब भी उसे भाव दे रहा है क्योंकि उसमें अब भी दम है.

Thursday, October 5, 2017

अर्थव्यवस्था की ढलान के दिनों में कोजागरा की रात लक्ष्मी पूजा


(यह लेख आइचौक डॉट कॉम में प्रकाशित हो चुका है)


आइए कि लक्ष्मी की पूजा करें. गुरुवार की रात शरद पूर्णिमा को लक्ष्मी को पूजना जरूरी है.

आप चाहें तो अपनी छत पर या आंगन में खड़े होकर चांद की निहारिए. आप चलेंगे तो चांद चलेगा, आप भागेंगे तो चांद साथ भागेगा, इसी को तो कविताई में कहा है किसी नेः

'चलने पर चलता है सिर पर नभ का चन्दा.
थमने पर ठिठका है पाँव मिरगछौने का.

कभी धान के खेतों में फूटती बालियों के बीच खड़े होकर चांद को निहारा है आपने? खेतिहर इलाकों में जाइए तो धान की बालियों से निकलती सुगंध से मतवाले हो जाइएगा. दूर-दूर तक छिटकी हुई चाँदनी थी और अपूर्व शीतल शान्ति. बस यों कहिए कि 'जाने किस बात पे मैं चाँदनी को भाता रहा, और बिना बात मुझे भाती रही चाँदनी.

मिथिला में नवविवाहित वर-वधू के लिए शरद पूर्णिमा का बड़ा महत्व है. चांदनी रात में गोबर से लिपे और अरिपन (अल्पना) से सजे आंगन में माता लक्ष्मी और इन्द्र के साथ कुबेर की पूजा और अतिथिय़ों का पान-मखान से सत्कार और वर-वधू की अक्ष-क्रीड़ा (जुआ खेलना) कोजागरा पर्व का विशेष आकर्षण है.

नव विवाहित जोड़ों के आनंद के लिए दोनो को कौड़ी से जुआ खेलाया जाता है. चूंकि वधू अपनी ससुराल में नई होती है, जहां वरपक्ष की स्त्रियां अधिक होती हैं, इसलिए मीठी बेइमानी कर वर को जिता भी दिया जाता है.

लक्ष्मी-पूजन के बाद नवविवाहित जोड़े पूरे टोले भर के लोगों को पान-मखान बांटते हैं. कोजागरा के भार (उपहार) के रूप में वधू के मायके से बोरों में भरकर मखाना आता है. मखाने मिथिलांचल के पोखरों में ही होते हैं. दुनिया में और कहीं नहीं. इनके पत्ते कमल के पत्तों की तरह गोल-गोल मगर काँटेदार होते हैं. उनकी जड़ में रुद्राक्ष की तरह गोल-गोल दानों के गुच्छे होते हैं, जिन्हें आग में तपाकर उसपर लाठी बरसाई जाती है, जिससे उन दानों के भीतर से मखाना निकलकर बाहर आ जाता है. बड़ी श्रमसाध्य प्रक्रिया है, जिसे मल्लाह लोग ही पूरा कर पाते हैं.

शरद के चंद्रमा की इस भरपूर चांदनी का मजा सिर्फ मिथिलांचल में ही नहीं लिया जाता बल्कि मध्य प्रदेश, गुजरात, बंगाल और महाराष्ट्र में भी इस दिन लक्ष्मी की पूजा की जाती है. इन इलाकों में खीर के पात्र को रात भर चांदनी में रखकर सबेरे खाया जाता है. कहते हैं, शरद पूर्णिमा की रात में खुले आकाश के नीचे चांदी के पात्र में खीर रखने से उसमें अमृत का अंश आ जाता है.

असल में शरद पूर्णिमा या कोजारगी पूर्णिमा या कुआनर पूर्णिमा एक फसली उत्सव है. आसिन (आश्विन) के महीने में जब खेती-बाड़ी के सारे कामकाज खत्म हो जाते हैं, मॉनसून का बरसता दौरे-दौरा समाप्त हो जाता है, तब यह उत्सव आता है और इसे कौमुदी महोत्सव भी कहते हैं. कौमुदी का अर्थ चांदनी होता है. यह उत्सव गोपियों के साथ कृष्ण के रास का उत्सव है.

दंतकथाएं कहती हैं कि एक राजा अपने बुरे दिनों में दरिद्र हो गया और उसकी रानी ने जब कोजागरा की रात को जागकर लक्ष्मी पूजन किया तो राजा की समृद्धि लौट आई. कोजागरा की रात देवताओं के राजा इंद्र को भी पूजा जाता है.

अब कई लोगों का यह भी विश्वास है कि इन दिनों चांद धरती के ज्यादा नजदीक होता है और औषधियों के देवता चंद्र इन दिनों अपनी चांदनी में देह और आत्मा को शुद्ध करने वाले गुण भर देते हैं.

वेद कहता है कि चन्द्रमा का उद्भव विराट पुरुष के मन से हुआ -'चन्द्रमा मनसो जात:, चक्षो: सूर्यो अजायत (पुरुषसूक्त). चन्द्रमा और सूर्य, इन्हीं दोनो से तो सृष्टि है. चन्द्रमा हमारे जीवन को कई रूपों में प्रभावित करता है. उसका सम्बन्ध पृथ्वी के जलतत्व से है. इसीलिए समुद्र में ज्वार-भाटा चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार घटता-बढ़ता है. पूर्णिमा की रात समुद्र का ज्वार अपनी चरम सीमा पर रहता है.

यह कैसा अभिशाप, चांद तक
सागर का मनुहार न पहुंचे,
नदी-तीर एकाकी चकवे का
क्रन्दन उस पार न पहुंचे.

समुद्र-मंथन के बाद महारत्न के रूप में एक साथ निकलने के कारण चन्द्रमा और लक्ष्मी भाई-बहन हुए. चूंकि संसार के पालनकर्ता विष्णु की पत्नी लक्ष्मी जगन्माता हैं, इसलिए उनके भाई चन्द्रमा सबके मामा हैः चन्दा मामा. शास्त्र कहता है कि लक्ष्मी अगर विष्णु के साथ आती हैं, तो उनका वाहन गरुड़ होता है, लेकिन जब अकेली आती हैं तो उनका वाहन उल्लू होता है. मिथिला में कोजागरा की रात की लक्ष्मी-पूजा में त्रिपुरसुन्दरी लक्ष्मी का युवती के रूप में सांगोपांग वर्णन करते हुए उनसे हमेशा अपने घर में रहने की विनती की जाती हैः

या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी
गंभीरावर्तनाभि: स्तनभरनमिता शुभ्रवस्त्रोत्तरीया।
लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रै: मणिगणखचितै: स्नापिता हेमकुम्भै:
नित्यं सा पद्महस्ता वसतु मम गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता॥

कभी पूजा विधि को गौर से देखिए तो समझ में आएगा कि सामान्य पूजा के बाद बाकी देवताओं को तो अपने-अपने स्थान पर चले जाने का अनुरोध किया जाता है (पूजितोऽसि प्रसीद, स्व स्थानं गच्छ), लेकिन लक्ष्मी को सभी अपने पास ही रहने का आग्रह करते हैं (मयि रमस्व).

कोजागरा की रात महाराष्ट्र का उत्सव थोड़ा अलग होता है. इसमें परिवार के सबसे बड़ी संतान को सम्मान दिया जाता है.

गुजरात में यह शरद पूनम है, जहां गरबा और डांडिया के साथ लोग इसे मनाते हैं., तो बंगाल के लिए यह कोजागरी लक्खी पूजो है. ओडिशा में यह शिव के पुत्र कार्तिकेय की पूजा का दिन है. इसलिए वहां इसे कुमार पूर्णिमा कहते हैं. कार्तिकेय ने इसी दिन तारकासुर के साथ युद्ध किया था. ओडिशा की लड़कियां कार्तिकेय जैसा वर पाने के लिए पूजा करती हैं, क्योंकि कार्तिकेय या स्कंद (जिनको तमिलनाडु में मुरुगन कहते हैं) देवों में मोस्ट एलिजिबल बैचलर हैं. सबसे दिलेर, हैंडसम और खूबसूरत भी. लेकिन विचित्र है कि कार्तिकेय जैसा वर मांगने का दिन होने के बावजूद ओडिशा में इसका कोई कर्मकांड नहीं है. इसकी बजाय सुबह में सूर्य की ही पूजा 'जान्हीओसा' होती है. शाम में चांद की पूजा होती है और उनके लिए खास भोग चंदा चकता बनता है. इसको घी, गुड़, केला, नारियल, अदरक, गन्ने, तालसज्जा, खीरा, मधु और दूध से बनाया है और फिर इसको कुला (पंखे) पर रखा जाता है.

कोजागरा के दिन कटक से आगे केंद्रपाड़ा के तटीय इलाको में गजलक्ष्मी की पूजा भी होती है.

इलाके अलग-अलग है तरीके भी अलग, लेकिन पूजा लक्ष्मी की ही होती है. जीएसटी और नोटबंदी से हलकान देश में पूरे देश को कोजागरा मनाना चाहिए, क्या पता जीडीपी की विकास दर संभल ही जाए.



Saturday, September 30, 2017

रामलीलाः चीर कर रख दूंगा लकड़ी की तरह

दृश्य 1ः
मंच सजा था, बिजली की लड़ियों ने चकाचौंध मचा रखी थी। महागुन मेट्रो मॉल की विशाल इमारत की छत पर मैकडॉनल्ड का लाल रंग का निशान चमक रहा था। इस मॉल की आधुनिकता की चमक के ऐन पीछे मैदान में था मंच. बल्बों की नीली-पीली रौशनी के बीच भगवा रंग के कपड़ो में एक किशोर-सा अभिनेता लक्ष्मण बना हुआ था।

मंच पर मौजूद सारे अभिनेता, जिनमें एक विदूषक, कई वानर लड़ाके और कई राक्षस थे। हनुमान भी। सारे अभिनेता मंच पर हमेशा चलते रहते, तीन कदम दाहिनी तरफ, फिर वापस मुड़कर, तीन कदम बाईं तरफ।

बीच बीच में कोई पंडितजीनुमा आदमी कोई निर्देश दे आता मंच पर जाकर। फिर मंच पर आवाज आती, उद्घोषक की, जिसे अपनी आवाज़ सुनाने में ज्यादा दिलचस्पी थी।

काले कपड़ो में सजे मेघनाद की आवाज़ में ज़ोर था, भगवा कपड़े में सजे लखन लाल की आवाज़ नरम थी। लेकिन तेवर वही...दोनों के बीच संवाद में शेरो-शायरी थी। एक ललकारता...दूसरा उसका जवाब देता।

लखन लाल चीखे, अरे क्या बक-बक करता है बकरी की तरह, चीर कर रख दूंगा, लकड़ी की तरह
भीड़ ने जोरदार ताली बजाई. मैदान में धूल-धक्कड़ है. प्रीतम की धुन बजाता पॉपकॉर्न बेचने वाला है. लकड़ी की तलवारें, गदाएं, तीर-धनुष हैं.

सोच रहा था कि क्या दिल्ली में भी लोग इतने खाली हैं, या फिर कुछ तो ऐसा है इन आधुनिक शहरियों को अपनी ओर खींच रहा है। रामलीला के बगल में, एक जगह ऑरकेस्ट्रा का आय़ोजन है। लडकी बांगला गाने गा रही है, और लगभर सुर के बाहर गा रही है. रामलीला में दृश्य बदलता है, रावण का दरबार सजा है और दो लड़कियां (समझिए अप्सराएं) नाच रही हैं. उनका कमर और कूल्हे मटकाना कुछ भड़कीला ही है. अप्सराएं रावण से कह रही हैं- अमियां से आम हुई डार्लिंग तेरे लिए...


वह भीड़ से पूछती है, केनो, हिंदी ना बांगला...भीड़ के अनुरोध पर वह हिंदी में गाती है। लौंडिया पटाएंगे, फेविकोल से...मेरे मित्र सुशांत को पूजा के पवित्र पंडाल में यह शायद अच्छा नहीं लगा होगा। मैं तर्क देता हूं कि यह मास कल्चर है। मास को पसंद कीजिए, हर जगह तहज़ीब की पैकेजिंग नहीं चलेगी. 

पिछले साल इसी जगह रामलीला में अप्सराएं फेविकोल वाला गाना गा रही थीं.


यह सही है। यही सही है। आम आदमी, जिसके लिए राम लीला के पात्रों ने हिंदुस्तानी बोलना शुरू कर दिया। संवादों के बीच में ही, मानस की चौपाईयां आती है, जो माहौल में भक्ति का रंग भरने के सिवा कुछ और नहीं करतीं।

अगल बगल गुब्बारे, हवा मिठाई, गोलगप्पे...प्लास्टिक के खिलौने...चाट, भेलपूरी। मुझे मधुपुर की याद आई।

दृश्य़ दोः 
हमारे घर के पास ही एक दुर्गतिनाशिनी पूजा समिति है। दुर्गा की मूर्त्ति के सामने बच्चों के नाच का एक कार्यक्रम है। यह समिति पहले उड़िया समुदाय के लोगों के हाथ में थी, अब उस समिति में बिहारी, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, यूपी के सभी समुदायों के लोग है।

सभी घरों के बच्चे नाच रहे हैं, महिलाएं हैं...मेयर साहब आते हैं..। जय गणेशा गाने पर नाचने वाला लड़का बहुत अच्छा नाच रहा है। मैं पहचानता हूं उसे, वह बिजली मिस्त्री है। रोज पेचकस कमर में खोंसे शिवशक्ति इलेक्ट्रिकल्स पर बैठा रहता है। मुसलमान है।

अब किसी को फर्क नहीं पड़ा कि नाचने वाला लड़का किस धर्म का है। किसी को फर्क नहीं पड़ा कि दुर्गा जी ने जिस महिषासुर को मारा है मूर्ति में...उसकी जाति और उसके समुदाय को लेकर बौद्धिक तबका बहस में उलझा है। जनता को फर्क नही पड़ता कि दुर्गा ने किसको मारा है।

देश उत्सवधर्मियों का है, उत्सव मनाते हैं हम।

इसमें विचारधारा को मत घुसेडिए। दुर्गा पूजा को एक प्रतीक भर रहने दीजिए। इसके सामाजिक संदर्भों को देखिए, इसमें और समुदायों को मिलाइए...और सांप्रदायिकता, राम को सांप्रदायिक बना दिया है आपने, अब दुर्गा को भी मत बनाइए।

यह आम लोगों को उत्सव है...उत्सव ही रहे। ऑरकेस्ट्रा बजता रहे, सुर बाहर लगे, कोई दिक्कत नहीं, जय गणेसा पर नाचते रहें लोग...बस।

Thursday, September 21, 2017

शांतनु हत्याकांडः प्रधानमंत्री मोदी के नाम एक खुला खत

आदरणीय प्रधानमंत्री जी,

आप बेहद व्यस्त रहते हैं. आपको व्यस्त रहना चाहिए क्योंकि व्यस्त प्रधानमंत्री होने का सगुन देश के लिए अच्छा होता है. हम छोटे थे तो हमने एक और प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के बारे में सुना था, और हमने अखबारों में पढ़ा था कि देवेगौड़ा कैबिनेट की बैठकों में झपकी लिया करते थे.

मोदी जी आप देवेगौड़ा नहीं हैं. आपने करीब 57 योजनाएं देश के लिए लागू की हैं. 2014 में जब चुनाव हो रहे थे तब पूरे देश के साथ मुझे भी उम्मीद थी कि आप देश के बदलने वाले कदम उठाएंगे. मुझे विकास, जीडीपी की वृद्धि दर, नोटबंदी, जनधन खातों और जीएसटी पर कुछ नहीं कहना है. मैं आपका ध्यान खींचना चाहता हूं पत्रकारों की हत्याओं की तरफ. त्रिपुरा के पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या हो गई है. नौजवान ही था. यह हत्या एक और पत्रकार की हत्या है.

वह नौजवान त्रिपुरा के एक लोकल चैनल का रिपोर्टर था. रिपोर्टर, जी हां, रिपोर्टर. वह संपादक नहीं था. वह किसी सरकार या पार्टी के लिए या उसके खिलाफ़ एजेंडा सेटर नहीं था. मुझे पता है कि शांतनु जैसों के लिए वामी आंदोलनकारी आंसू नहीं बहाएंगे, न फेसबुक पर अपनी डीपी बदलेंगे, न उसकी तस्वीर लेकर जंतर मंतर पर छाती पीटेंगे. कोई मोमबत्ती लेकर मार्च भी नहीं करेगा, क्योंकि वह किसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करता था. शांतनु की मौत पर किसी टीवी चैनल का स्क्रीन काला नहीं हुआ है.

लेकिन, यहीं आकर आपको ज़रा कदम बढ़ा देना होगा. प्रधानमंत्रीजी, आप तो लोकसभा में प्रवेश करने से पहले उसे मंदिर की तरह उसकी सीढ़ियों पर सिर नवाकर गए थे. लोकतंत्र का चौथा खंभा बुरी तरह हमलों से परेशान है. यह हमले पिछले तीन साल में कुछ ज्य़ादा हो गए हैं. 2014 और 2015 में 142 पत्रकारों पर हमले हुए हैं और यह राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्ड्स ब्यूरो का आंकड़ा है.

2014 में पत्रकारों पर 114 घटनाएं हुई थीं उसमें 32 गिरफ्तारियां हुईं. यह आंकड़ा मेरा नहीं है, यह जानकारी गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर की दी हुई है. 1992 से लेकर आजतक पत्रकारों के काम के सीधे विरोध में 28 पत्रकारों की हत्या की जा चुकी है. यह आंकड़ा भी खामख्याली नहीं है. यह पत्रकारों की सुरक्षा के लिए बनी कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है.

एनसीआरबी का एक और आंकड़ा है जिसमें कहा गया है कि पिछले 3 साल में 165 लोगों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. जी नहीं, जम्मू-कश्मीर के पत्थरबाज या आतंकी होते तो मैं इस आंकड़े के पक्ष में खड़ा होता, इनमे ले 111 बिहार, झारखंड, हरियाणा और पंजाब से हैं.

ह्यूमन राइट्स वॉच (मैं इनके दुचित्तेपन से ऊब गया हूं) कहता है कि भारत में इस साल जून तक 20 दफा इंटरनेट बंद किया गया है. और प्रेस फ्रीडम सूचकांक में भारत 136वें पायदान पर है.

जिन 142 पत्रकारों पर हमले हुए हैं उस सिलसिले में अबतक एक भी आदमी गिरफ्तार नहीं हुआ है.

प्रधानमंत्री जी, आपके विकास और सुशासन के नाम पर जनता ने उमड़ कर वोट किया था. आप साबित कर दीजिए कि देश के करोड़ो लोगों का विश्वास मिथ्या नहीं था. मुझे आपके राजनीतिक फैसलों पर कुछ नहीं कहना है. लेकिन पत्रकारों पर हो रहे हमले विधि-व्यवस्था (हालांकि यह राज्य का विषय है) पर सवालिया निशान लगा रहे हैं. लेकिन 2014 के बाद से हमलों में आई तेजी से आपका नाम खराब हो रहा है. मुझे उम्मीद है कि आप पत्रकारों और चौथे खंभे के निचले स्तर पर काम करने वाले रिपोर्टर्स और मीडियाकर्मियों के लिए कल्याण और सुरक्षा का कोई कदम जरूर उठाएंगे.

प्रधानमंत्रीजी, शांतनु की हत्या पर कुछ कहिए, क्योंकि देश में जो थोड़ी बहुत पत्रकारिता बाक़ी हैं इन्हीं 'शांतनुओं' की बदौलत बची है.

एक पत्रकार



Thursday, September 14, 2017

ठर्रा विद ठाकुरः जलते हैं दुश्मन तो खिलते हैं फूल

गुड्डू भैया अपने दालान में लकड़ी की कुरसी पर उकडूं बैठे हुए थे. मेरे वहां जाते ही
चिल्लाएः ओ ठाकुर ब्रो, कम एंड हैव टी विद मी.
मैं चकरा गयाः भिया आज चौदह सितंबर है. हिंदी दिवस है आज अंग्रेजी क्यों छांट रहे हैं?गुड्डू मुस्कुरा उठे. बोले,
30 के फूल 80 की माला,
बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला
अरे, भैया हिंदी को बचाने वाले दिन आप क्या सड़कछाप शायरी कर रहे हैं. यह तो ट्रक और ऑटो वगैरह पर लिखा होता है. आपको तो पंत-निराला-प्रसाद-बच्चन जैसो की बात करनी चाहिए. इनकी वजह से हिंदी बची हुई है.
गुड्डू ने गिलास में मौजूद सोमरस का लंबा घूंट भरा और कहाः हिंदी कौन सी मर रही है बे? बाजार में कामयाब होगी तो हिंदी बची रहेगी. तुम सेमिनार करके हिंदी नहीं बचा पाओगे. अगर हिंदी का सिनेमा चल रहा है, तो हिंदी बची हुई है. अगर ट्रक, बसों और ऑटो के पीछे हिंदी में कविताएं लिखी जा रही हैं तो समझो आम आदमी की हिंदी वही है. बाकी तुम जो कर रहे हो वह हिंदी की चिंदी है.
क्या बात कर रहे हैं आप, इन गाड़ियों पर लिखे की आप उच्चस्तरीय साहित्य से तुलना कर रहे हैं?उन्होंने तपाक से जवाब दिया: क्यों न करें? सड़क पर लिखी हर इबारत का अपना समाजशास्त्र होता है. देश में इतनी भीड़ है तो लिखाः
जय शिव शंकर, भीड़ ज़रा कम कर
देश में इतनी नफरत है कि गाड़ियों के पीछे लिखना पड़ाः
देखो मगर प्यार से
मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता कि इन गाड़ियों पर लिखे कई जुमले बड़े पुराने और घिसे-पिटे हो चुके हैं. लेकिन तुम ड्राइवरों और कंडक्टरों में छिपे उस शायर के आगे क्यों सजदा नहीं करना चाहते जो ऐसी चीजों को चुनने की और उन्हें गाड़ी पर लिखवाने की नजर रखता है. तुम उनके अनगढ़ मगर सच्चे काव्यबोध से इत्तफाक क्यों नहीं रखते?
नीयत तेरी अच्छी है तो किस्मत तेरी दासी है
कर्म तेरे अच्छे हैं तो घर में मथुरा काशी है
या फिर यह देखो,
फानूस बनकर जीसकी हीफाजत हवा करे
वो शमां क्या बुझे जिसे रौशन खुदा करे
देखो ठाकुर, हिज्जे पर मत जाना पर सड़क के तनाव को कम करने में इन कविताओं का भारी योगदान है. रोड रेज से तपती सड़कों पर ये फुटकर शेर ठंडी छांव का काम करते हैं. हल्की, कच्ची और रूखी तुकबंदी ही सही, लेकिन कविता तो इन लाइनों में होती ही है. ये लोग अपने किस्म के कबीर हैं भाई. कहते तो थे कबीरः जो जो करूं सो पूजा. तो यह जो लिखें, सो कविता….
हमें जमाने से क्या लेना, हमारी गाड़ी ही हमारा वतन होगा
दम तोड़ देंगे स्टियरिंग पर, और तिरपाल ही हमारा कफन होगा…
यह क्या आत्मवंचना और दया नहीं है? क्या यह तुम्हारे साहित्य का के लघु मानव का बयान नहीं है? अनजान और अंदेशों से भरी लंबा यात्राओं में किस तरह ड्राइवर भाई सिर पर कफन बांध लेते हैं, इसका जायजा भी लोः
रात होगी, अंधेरा होगा और नदी का किनारा होगा
हाथ में स्टियरिंग होगा, बस मां का सहारा होगा….
पता नहीं यह पंक्ति जन्म देने वाली मां के लिए है या किसी देवी मां के लिए लेकिन उसके जोखिम कबूल करने का अंदाज तो देखो.चिलचिलाती धूप में जब तपते बोनट की बगल में बैठे ड्राइवरों-हेल्परों को देखो तो पता चलेगा कि सबसे मुश्किल, सबसे खानाबदोश नौकरी इनकी ही होती है. उनकी तकलीफ ‌सिर्फ जिस्मानी ही नहीं होती, उसमें बाल-बच्चों से दूर होने की टीस भी घुली मिली होती है… तुमने भी तो देखा ट्रकों के पीछे बनी तस्वीर में नदी किनारे एक युवती अपने घुटनों में सिर छिपाए बैठी है. साथ में लिखा होता है… घर कब आओगे…और शेर भी हैः
जब परदेस लिखा है किस्मत में
तब याद वतन की क्या करना…
भावनाओं की इस दुनिया में हमें भोगा हुआ यथार्थ और जीवन-दर्शन भी मिलता है, खूब सारी नसीहतें भी. कुल मिलाकर सड़कीय जीवन की सूक्तियां और सुभाषित हैं ये नारे, जिसमें 'स्ट्रीट-स्मार्ट विज़्डम' अर्थात गली-सुलभ बुद्धि है. सुनोः
अपनों से सावधान
दोस्ती पक्की, ख़र्चा अपना-अपना
मांगना है तो ख़ुदा से मांग बंदे से नहीं,
दोस्ती करनी है तो मुझसे कर, धंधे से नहीं.
देते हैं रब, सड़ते हैं सब,
पता नहीं क्यों.
'दुनिया मतलब की' जैसे नारे अगर ज़माने से ठोकर खाए लोगों का चीत्कार है, तो 'अपनों से बचकर रहेंगे, ग़ैरों को देख लेंगे' में एक साथ अपने अस्तित्व का निचोड़ है, तो धमकी भी.
मतलब की है दुनिया कौन किसी का होता है,
धोखा वही देते हैं जिन पर ऐतबार होता है.
नेकी कर जूते खा,
मैंने खाए तू भी खा.
ठाकुर, यह जो ट्रक-साहित्य है न, इसे हल्के में मत लो. इसमें विज़डम है तो मां-बाप जैसी हिदायतें भी. मोहल्लों में, जब ऑटो धीरे चल रहे होते हैं तो बच्चे उसमें लटकने की कोशिश करते हैं. उन्हें वैसे ही डांटा गया है, जैसे हमारे समाज में बच्चों को डांटते हैः
चल हट पीछे!
-लटक मत टपक जाएगा!
-लटक मत पटक दूंगी!
इसका एक झारखंडी संस्करण भी है:
बेटा छूले त गेले
सटले त घटले!
मुझे लगा कि गुड्डू को सही रास्ते पर लाने का यही एक वक्त है. उनसे शराब छुड़वाने वाली शायरियां बुलवा कर. मैंने कहाः भिया, आप शराब छोड़ दीजिए फिर तो, काहे कि गाड़ियों में हर जगह तो इसकी बुराई ही लिखी है.पीकर जो चलाएगा, परलोक को जाएगा
चलाएगा होश में तो ज़िंदगी भर साथ दूंगी,चलाएगा पीकर तो ज़िंदगी जला दूंगी.
बड़ी ख़ूबसूरत हूं नज़र मत लगाना,ज़िंदगी भर साथ दूंगी पीकर मत चलाना.
राम जन्म में दूध मिला, कृष्ण जन्म में घी,
कलयुग में दारू मिली, सोच समझ कर पी.
और भी है,
ऐ दूर के मुसाफ़िर, नशे में चूर गाड़ी मत चलाना।
बच्चे इंतजार में है, पापा वापस ज़रूर आना।।
गुड्डू हंसने लगे. इस ख़राब दुनिया में जो माशूकाएं दिल तोड़ती हैं तो पीसी बरुआ के देवदास से लेकर संजय लीला भंसाली के देवदास और अनुराग कश्यप के देवडी से मुझ जैसे आशिक तक, सहारा सिर्फ इसी मय का है ठाकुर. सुन लो,
शराब नाम ख़राब चीज़ है, जो कलेजे को जला देती है,
उसे बेवफ़ा से तो सही है, जो ग़म को भुला देती है.
ठाकुर तुम ख्वामखा शराब को बदनाम कर रहे हो. एक ट्रक के पीछे लिखा थाः
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल.
और,
खुशबू फूल से होती है, चमन का नाम होता है,
निगाहें क़त्ल हैं, हुस्न बदनाम होता है.
बूझे? मैंने समझने का इशारा देते हुए सिर हिलाया. तो गुड्डू भैया बोले, जब तक आम आदमी के पास हिंदी जिंदा है तब तक हिंदी-फिंदी दिवस से कुछ नै होगा. हिंदी जिंदा है और जिंदा रहेगी. और तुम जो हर बात पर शराब की बुराई करते हो, जाओ पंकज उधास की आवाज में मशहूर गज़लें सुनोः जिसके बोल हैः
हुई महंगी बहुत ही शराब कि थोड़ी-थोड़ी पिया करो.
फूंक डाले जिगर को शराब, कि थोड़ी थोड़ी पिया करो...
मैं समझ गया कि गुड्डू भैया काले कंबल है. इन पर कोई रंग न चढ़ेगा. मैं जाने के लिए मुड़ा तो गुड्डू भैया कि आवाज़ आई. अऱे ठाकुर गुस्सा हो कर जा रहे हो, तो एक ट्रक साहित्य का शेर पेश-ए-नजर हैः
चलती है गाड़ी तो उड़ती है धूल
जलते हैं दुश्मन तो खिलते हैं फूल !

Tuesday, September 12, 2017

ठर्रा विद ठाकुरः हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर

पेड़ के नीचे बैठे गुड्डू भईया तकरीबन ध्यान की मुद्रा में थे. मैं गुजर रहा था तो सोचा चुपके से निकल लूं. आखिर गुड्डू भैया अभी ब्लेसिंग स्टेट में होंगे तत्व सेवन के बाद. सुबह-सुबह उठकर ह्विस्की के घूंट भर लेना गुड्डू जी की आदत थी और गुड्डू उसे आचमन कहते.

मेरे कदमों की आवाज सुनकर गुड्डू ने आंखें खोल दीः ठाकुर कहां भगे जा रहे हो, तनिक मैनाक पर विश्राम-सा कर लो. अब भागने की कोई राह न थी, मैं उनके कदमों में कुछ ऐसे बैठ लिया जैसे पुराने जमाने में छात्र गुरुओं के पैरों के पास बैठते थे. ज्ञान हासिल करने के लिए.

गुड्डू भैया अभी प्रकृतिस्थ हो पाते कि मैंने कहाः शिक्षक दिवस की मुबारकवाद हो गुड्डू भिया.

हैप्पी टीचर्स डे. मैं चौंका, अरे भिया आप और अंग्रेजी!

गुड्डू कुछ वैसे ही चौंके जैसे कबूतर की तरफ पत्थर उछालिए तो वह चौंकता हैः अबे ठाकुर, हम तो क्या चीज़ हैं चचा ग़ालिब तक अंग्रेजी के शौकीन थे. उनको तो एक स्कॉच से ऐसी मुहब्बत थी कि पटियाला नरेश के न्योते के बावजूद नहीं गए थे. वह स्कॉच सिर्फ दिल्ली छावनी में मिलती थी.

वह तो ठीक है गुड्डू भिया. आज शिक्षक दिवस के मौके पर भी शराबनोशी!

गुड्डू ने अपनी सींकिया काया को जितना मुमकिन था उतना फुलाकर कहाःल हर शब पिया ही करते हैं मय जिस कदर मिले...चचा ग़ालिब का ही कहा हुआ है. और तुम यह न दिवस वगैरह मना करके कैलेंडर मत बन जाओ. देखो यूं समझो कि जिस आदमी के लिए कुछ नहीं कर सकते उसका डे मना लो... सुनो कि एक दीवाने लेखक मंटो ने क्या लिखा है दुनिया में बड़े-बड़े सुधारक हुए हैं। उनकी शानदार शिक्षाएं भी रही हैं। शिक्षाएं वक्त के साथ घिस-मिट जाती हैं, खो जाती है। रह जाती हैं तो सलीबें, धागे, यज्ञोपवीत, दाढ़ियां, बग़लों के बाल...

लेकिन गुरुओं के योगदान को भुला सकता है कोई जीवन में?

क्यों भुलाएगा भाई? तुम्हारे जीवन में कोई ऐसा शिक्षक नहीं रहा जिसने तुमसे 27 का पहाड़ा न पूछा हो? खैर, जानना चाहते हो तो जानो कि शिक्षा का अधिकार कानून देशभर में अब तक नौ फीसदी से भी कम स्कूलों में लागू हो पाया है. यह कानून कहता है कि आठवीं तक तो सभी बच्चों को शिक्षा जरूरी तौर पर मुहैया कराई जाए. लेकिन यह तब होगा जब गांव-गांव स्कूल खुले, शिक्षकों की समस्याओं का समाधान हो, और शिक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाया जाए.

देखो, देशभर में करीब 50 फीसदी शिक्षक संविदा आधारित हैं...संविदा नहीं समझते? ठेके पर काम करने वाले शिक्षक. चिंदी भर की तनख्वाह मिलती है, पिर क्या पढ़ाएगा वह? शुक्राचार्य, वृहस्पति और द्रोण को ठेके पर रखकर देखते तो कभी न दानव स्वर्ग जीत पाते, न देवता दानवों से स्वर्ग छीन पाते, न तुमको अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, दुर्योधन जैसे रणबांकुरे मिल पाते. संदीपनि सुखी थे तो कृष्ण वासुदेव बने. पढ़ाई लिखाई भी कोई अनुबंध और ठेके पर देने की चीज है? ऐसे करवाओगे देश के भविष्य का निर्माण?

गुरुओं को क्यों नाराज कर रहे हो तुम लोग? कबीर को सुनोः

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥


गुड्डू भैया का सवाल सदी के सवाल की तरह छा गया. मैं चुप था कि गुड्डू भैया ज्ञानमुद्रा से वापस आएः पता है ह्विस्की की टीचर्स ब्रांड पौने दो सौ साल पुरानी है और इसको विलियम टीचर नाम के शख्स ने शुरू किया था.

मुझे नहीं मालूम था. मैंने कहाः आज के शिक्षक वेतन तो लेते है लेकिन पढ़ाने में फांकी मारते हैं.

गुड्डू उकडूं बैठ गएः देखो ठाकुर, हमारे यहां लोगों में यह गलतफहमी है कि शिक्षक को वेतन अधिक मिलता है, जबकि हालात इसके लट हैं. मौजूदा समय में देश के बजट का करीब 3.4 फीसदी शिक्षा पर खर्च किया जाता है. इसमें से करीब 65 फीसदी आमदनी सरकार को विविध उपकरों से होती है. यानी शिक्षा में हमारा खर्चा बहुत कम है. अच्छे वेतन की जो बात तुम कर रहे हो न, वैसे टीचर बहुत कम हैं...देशभर में 50 फीसदी शिक्षक वेतन से जूझ रहे हैं. जितने शिक्षक हैं उनमें से आधों को 6 हजार रु. से भी कम तनख्वाह मिलती है. शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए गठित किये गये कोठारी आयोग ने इस बात की सिफारिश की थी कि शिक्षक का वेतन कम-से-कम इतना तो हो ही कि उसे किसी तरह की आर्थिक परेशानियों से जूझना नहीं पड़े. आयोग ने शिक्षकों को एक सम्मानित वेतन देने की बात कही थी. लेकिन, सल में उनका वेतन न्यूनतम मजदूरी के बराबर है. अनुबंध पर काम करने वाले अधिकतर शिक्षकों की ट्रेनिंग नहीं हुई है. देशभर में करीब 11 लाख शिक्षक ट्रेंड नहीं हैं तो बताओ क्या पढ़ाएं ये लोग?

मैं संतुष्ट नहीं हुआः भिया, मास्टर लोग स्कूल छोड़कर धनरोपनी कराने निकल जाते हैं..

गुड्डू भिया मुस्कुरा उठेः वेतन दोगे मजदूर वाला और काम द्रोणाचार्य का लोगे? खाली मास्टर लोगों से उम्मीद करोगे कि वह पढ़ाई के बीच में धनरोपनी कराने न जाए. ग्रामीण इलाकों में अब भी करीब 10 फीसदी स्कूल ऐसे हैं, जहां एकमात्र शिक्षक हैं.

बेचारे एक ही मास्टर को बच्चों की हाजिरी देखनी होती है, सारे विषय और वर्गों को पढ़ाना होता है, अब तो दुपहरिया में खाने का इंतजाम भी करवाना होता है. और सरकार! एनसीइआरटी जैसे सरकारी शिक्षा संस्थानों को मजबूत बनाने के बजाय सरकार शिक्षा के लिए प्राइवेट सेक्टर की ओर देख रही है, इससे बेड़ा गर्क ही होगा न..

पता है सरकार ने 5 दिसंबर 2016 को लोकसभा में शिक्षा के आंकड़े पेश किए थे. उसके मुताबिक, सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में 18 फीसदी और माध्यमिक विद्यालयों में 15 फीसदी शिक्षकों के पद खाली हैं. देश भर में कुल मिलाकर करीब 10 लाख शिक्षकों की कमी है. देश के 26 करोड़ स्कूली छात्रों का करीब 55 फीसदी हिस्सा सरकारी स्कूलों में पढ़ता है. सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में माध्यमिक स्कूलों की सर्वाधिक रिक्तियां झारखंड में है, जो कि 70 फीसदी है. इस राज्य में प्राथमिक स्कूलों के लिए यह आंकड़ा 38 फीसदी है. उत्तर प्रदेश में माध्यमिक शिक्षकों के आधे पद खाली हैं, जबकि बिहार और गुजरात में यह कमी एक-तिहाई है. 60 लाख शिक्षकों के पदों में करीब नौ लाख प्राथमिक स्कूलों में और एक लाख माध्यमिक स्कूलों में खाली हैं.

लेकिन ठाकुर, जनगणना करवाना हो, मुर्गी, मवेशी, सूअर गिनवाना हो, मिड डे मील का भोजन बनवाना हो, ...बिना छत वाले स्कूल में पढ़ाना हो, बिना ब्लैक बोर्ड और खड़िया के पढ़ाना हो...बीडीओ से लेकर पंचायत सदस्य तक की जूती चटवाना हो...सारे काम शिक्षकों से करवा लो...

इतने के बाद शिक्षक अगर जिंदा रहकर पढ़ा रहा है ना, तो इसके लिए इस देश के तमाम प्रतिभावान् और कामचोर दोनों वर्गों के शिक्षकों का मेरा नमन.

गुड्डू संजीदा हो गए. आज मैंने उनके लिए शेर पढ़ाः

आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में 'फ़िराक़'
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए


गुड्डू मुस्कुरा उठे, उनने अपने पैंताने छिपा रखी टीचर्स का एक खंभा निकाला और जोर से कहाः हैप्पी टीचर्स डे.



Friday, September 8, 2017

ठर्रा विद ठाकुरः एवरीबडी लव्स अ गुड बाढ़

एवरीबडी लव्स अ गुड बाढ़
ठर्रा विद ठाकुरः दूसरी किश्त 
(डिस्क्लेमरः पाठक अपना पव्वा-चखना साथ लाएं)

गुड्डू भैया पूरे ताव में थे. अपने छप्पर पर खड़े होकर जितना लाउडस्पीकर हुआ जा सकता था उतना होकर कृष्ण कल्पित की सूक्तिय़ों को चीखकर गा रहे थेः

स्वप्न है शराब!
जहालत के विरुद्ध
गरीबी के विरुद्ध
शोषण के विरुद्ध
अन्याय के विरुद्ध
मुक्ति का स्वप्न है शराब!

भाई गुड्डू आपने शराब को मुक्ति का स्वप्न बता दिया? गुड्डू ने इशारा किया कि 'इनकिलास जिंदाबाघ' कहने के लिए फूस की छत से मुफीद जगह कोई नहीं. गुड्डू आम आदमी थे और उनकी छत ही उनका मंच थी. हालांकि उनकी छत उनकी मजबूरी भी थी क्योंकि नीचे बाढ़ के पानी ने गजब का समां बांध रखा था और उनके घर का हर बरतन मछली हो चला था.

गुड्डू भैया तो महज नुमाइंदे हैं, जो यह सब झेल रहे हैं, वरना गुजरात, असम, पश्चिम बंगाल, ओडिशा समेत देश के 26 राज्य और केंद्रशासित क्षेत्र बाढ़-बारिश की चपेट में हैं और 508 जानें जा चुकी हैं, देश की 2.8 लाख हेक्टेयर फसली जमीन बाढ़ से आई आपदा की चपेट में है और 63 लाख से ज्यादा घर क्षतिग्रस्त हो गए हैं. सबसे ज्यादा जान-माल का नुक्सान इस बार गुजरात को उठाना पड़ा, जहां 200 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है.

ऐसा कैसे कह सकते हैं भिया?

गुड्डू ने जांघ पर जोर से तलहत्थी मारते हुए कहाः अपनी क्या औकात रे ठाकुर. इ तो कैग कह रहा है.

मेरा मन खिन्न हो गया. आदमी हर काम के लिए सरकार को दोषी क्यों ठहराता है? क्यों गुड्डू भिया, सरकार ने बाढ़ की सूचना देने के लिए टेलीमीट्री स्टेशन नहीं बनाए हैं?

बोतल में बची आखिरी बूंद को बोतल उल्टा करने के बाद उसे जीभ से हिलकोर कर चाटते हुए गुड्डू बोलेः बनाया क्यों नहीं है ठाकुर...बनाया तो है. लेकिन करीब 60 फीसदी स्टेशन काम ही नहीं कर रहे हैं. बारहवीं पंचवर्षीय योजना में 219 टेलीमीट्री स्टेशन लगाए जाने का लक्ष्य था. 2016 तक सिर्फ 56 स्टेशन ही लगाए गए. कुल 375 टेलीमीट्री स्टेशनों में से 222 ठप पड़े हैं, तो रियल टाइम डेटा के लिए एक ही जगह बचती हैः भगवान इंद्र का दफ्तर.

मैं अभी बहस खत्म करने के मूड में नहीं था. मैंने कहा गुड्डू भिया, तो क्या बाढ़ खत्म करने के लिए कोई उपाय नहीं किया गया है?

गुड्डू मेरी तरफ मुड़कर चुप हो गए. दो मिनट तक के नाटकीय सिनेमाई साइलेंस के बाद फूटेः शराब छोड़ दी तुमने कमाल है ठाकुर/ मगर ये हाथ में क्या लाल-लाल है ठाकुर

मेरे मुंह से वाह निकलने ही वाला था कि उन्होंने हाथ से रोक दिया. मेरे लिए वाह न करो, जाकर राहत इंदौरी के लिए वाह करो. उन्हीं का है.

मैं चुप.

देखो, संकट असल में पानी का नहीं, संवेदनशीलता का है. राज्य सरकारें और केंद्र एक पटरी पर चलते ही नहीं. अगस्त से लेकर सितंबर 2011 तक 20 दिनों में छत्तीसगढ़ और ओडिशा में भारी बारिश से महानदी का जलस्तर बढऩे की चेतावनी केंद्रीय जल आयोग ने कई बार जारी की थी लेकिन बांध के अफसरों ने ध्यान नहीं दिया और सितंबर में भारी बाढ़ आ गई, जिससे ओडिशा के 13 जिले प्रभावित हुए और दो हजार करोड़ रु. का आर्थिक नुकसान हुआ.

2014 में यही कहानी फिर दोहराई गई. नतीजा भी वही रहाः महानदी बेसिन में बाढ़ आ गई. जून 2013 में उत्तराखंड में अलकनंदा में बाढ़ की कोई पूर्वसूचना नहीं दी गई. मार्च 2016 तक 4,862 बड़े बांधों में से मात्र 349 (7 फीसदी) के लिए ही इमरजेंसी ऐक्शन प्लान/डिजास्टर मैनेजमेंट प्लान तैयार किया गया. इनमें से भी 231 (पांच फीसदी) में ही ऑपरेटिंग मैनुअल तैयार किया गया. उत्तर प्रदेश के 115 में से सिर्फ 2, मध्य प्रदेश के 898 में 2, महाराष्ट्र के 1,693 में से 181 जबकि ओडिशा, राजस्थान, तेलंगाना, त्रिपुरा, हरियाणा ने कोई इमरजेंसी ऐक्शन प्लान बनाया ही नहीं. 17 राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों में से सिर्फ दो ने मॉनसून के पहले और बाद में बांधों का पूरी तरह निरीक्षण कराया जबकि 12 राज्यों में किसी तरह का कोई निरीक्षण नहीं हुआ.

मेरा मन दुखी हो गया. तो क्या बाढ़ से बचा नहीं जा सकता?

देखो, बाढ़ कत्तई नुकसानदेह नहीं. खेतों के लिए तो फायदेमंद है. लेकिन तब, जब जान-माल सुरक्षित बना लिया जाए. फिर भी, जानलेवा बाढ़ से बचने के उपायों में कई अड़ंगे हैं, जैसे बांध सुरक्षा विधेयक 2010 से लटका हुआ है. राष्ट्रीय जल नीति के अलावा महकमे बहुत बन गए हैं, जैसे केंद्र सरकार के अधीन-केंद्रीय जल आयोग, गंगा फ्लड कंट्रोल मिशन (1972), ब्रह्मपुत्र बोर्ड (1980), राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (1976), टास्क फोर्स (2004) नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी और राज्यों में स्टेट टेक्निकल एडवाइजरी कमेटी, राज्य बाढ़ नियंत्रण बोर्ड आदि, फिर भी बाढ़ का पानी हर साल सिर चढ़कर बोलता है.

गुड्डू भैया इस बीच फूस की छत से उतर गए थे. और मेरी नाव पर आकर चढ़ गएः ठाकुर, पत्रकार आदमी हो, थोड़ी-थोड़ी पिया करो. सुनो कल्पित की ही बात, खासकर तेरे लिए,

देवदास कैसे बनता देवदास
अगर शराब न होती.
तब पारो का क्या होता
क्या होता चंद्रमुखी का
क्या होता
रेलगाडी की तरह
थरथराती आत्मा का?
बाढ़ उतर जाए, तो अगले हफ्ते आना. काले चने की घुघनी (छोले) के साथ हंडिया पीने की कला सिखाऊंगा. चलो, एक पटियाला बना दो अभी. 

(यह लेख आईचौक.कॉम में प्रकाशित हो चुका है)

Thursday, September 7, 2017

ठर्रा विद ठाकुरः पहली किस्त

ठर्रा विद ठाकुरः (अपना पव्वा साथ लाएं)
इंडिया@70 और घीसू का पसीना

(आईचौक पर 14 अगस्त को लिखा गया कॉलम)

आजादी का दिन आ रहा है. सत्तर साल बीत गए आजाद हुए. रामधारी सिंह दिनकर की बच्चों वाली वह कविता तो आपको याद ही होगी, जिसमें चूहा चुहिया से कहता हैः

सो जाना सब लोग लगाकर दरवाजे में किल्ली,
आज़ादी का जश्न देखने मैं जाता हूँ दिल्ली।

भारत में आम आदमी (पार्टी नहीं) कॉमन मैन ब्रो...की हैसियत चूहे जैसी है और बिल्लियों का उस पर राज है.

हमारे एक दोस्त हैं, गुड्डू भैया जो अपनी सींक-सरीखी काया में तब तक दारा सिंह होते हैं जब तक देसी का असर रहता है. इस मामले में पूरे देशभक्त हैं और उनका दावा है कि चाहे किसी की रगों रम का निवास हो उनकी धमनियों में कंट्री बहती है.
गुड्डू भैया आम आदमी हैं. तकरीबन अमिताभ के विजय दीनानाथ चौहान अवतार में आकार उसने हाथ नचाते हुए पूछा था मुझसेः क्या भाई, ये देश किसका है, आजादी किसकी है?

यह सवाल ऐसा शाश्वत है कि चाहे-अनचाहे सत्तर साल से देश का हर कोना एक बार और अमूमन कई बार पूछ ही लेता हैः आजादी किसकी है, किसके लिए है. जिसके लिए भी हो, हमारे आपके लिए आजादी का मतलब ही कुछ और है. अब जबकि हम पंद्रह अगस्त के पावन मौके पर फेसबुक, ट्वीटर और तमाम ऐसे ही सोशल साइट्स पर अपनी डीपी तिरंगा करने पर उतारू हैं, तमाम जगहों पर अपनी आजादी का जश्न मना रहे हैं.

फेसबुक पर लिखे, ट्वीट कीजिए, सराहा पर परदे के पीछे रहकर किसी को मन भर गरिया दीजिए, खुले में शौच जाइए, सड़क किनारे मूत्र-विसर्जन कीजिए..मल्लब हर तरीके से हम आजाद हैं. तो जैसी प्रजा वैसा राजा. नेताजी भी आजाद हैं. जब मन आए पार्टी बदलिए, अंतरात्मा बदलिए, जो जो मन हो सब बदलिए. दलाली खाइए. रोका किसने है, और कोई रोक भी कैसे पाएगा...

लेकिन यह गलत है. गुड्डू भैया चौथे पैग से हवा में उड़ने लगते हैः अब खरीद-फरोख्त के मामले में लोग दलाली नहीं खाएंगे तो क्या यज्ञ-हवन में खाएंगे? ...और दुनिया में बहुत सारे काम भविष्य सुरक्षित करने के लिए भी तो किए जाते हैं। कुछ लोग बचत करते हैं, कुछ बीमा करवाते हैं, कुछ अपने बेटे-बेटियों, नाती-पोतो के लिए घोटाले कर लेते हैं।

कुछ लोग आज फिर से बोफोर्स-बोफोर्स चिल्लाने लगे हैं. यह तो गलत है न ठाकुर. सरासर नाइंसाफी! बोफोर्स में 64 करोड़ का घोटाला हुआ था. इतने पैसे तो रेज़गारी के बराबर हैं। चिंदीचोरी जैसी बात है यह, और इस पर आप होहल्ला मचा रहे हैं। शराफत तो छू भी नहीं गई आपको! मधु कोड़ा को देखिए, उन पर 4000 करोड़ के घोटाले का आरोप है, लालू प्रसाद का चारा घोटाला तक 800 करोड़ का था।

ज़रा तुलना कीजिए। कुछ आंकड़े बता रहा हूं। आजादी के सत्तर बरस हुए अपने देश के, और तब से लेकर आज तक, भ्रष्टाचार की भेंट हुई रकम है, 462 बिलियन डॉलर। जी, यह रकम डॉलर में है। चूंकि हम हर बात पश्चिम से उधार लेते हैं, सो यह आंकड़ा भी उधर से ही है।

वॉशिंगटन की ग्लोबल फाइनेंसियल इंटीग्रेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, आजादी के बाद से ही भ्रष्टाचार भारत की जड़ों में रहा है, जिसकी वजह से 462 बिलियन डॉलर यानी 30 लाख 95 हजार चार सौ करोड़ रूपये भारत के आर्थिक विकास से जुड़ नहीं पाए।

तो भ्रष्टाचार और घूसखोरी की हमारी इस अमूल्य विरासत पर, जो हमारी थाती रही है, आप सवाल खड़े कर रहे हैं? गुड्डू चौकी पर से नीचे उतर गए.

जब भी मैं भ्रष्टाचार की अपने देश की शानदार परंपरा का जिक्र करता हूं, हमेशा मुझे नेहरू दौर के जीप घोटाले से लेकर मूंदड़ा घोटाले, इंदिरा के दौर में मारुति घोटाले से लेकर तेल घोटाले, राजीव गांधी के दौर में बोफोर्स, सेंट किट्स, पीवी नरसिंह राव के दौर में शेयर घोटाला, चीनी घोटाला, सांसद घूसकांड, मनमोहन के दौर में टूजी से लेकर कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाला याद आता है। यह एक ऐसी फेहरिस्त है, जिसको इतिहास हमेशा संदर्भ की तरह याद रखेगा।

संयोग देखिए, अब इसमें कुछ ऐसे लोगों के नाम भी जुड़ रहे हैं, जिनकी समृद्धि देखकर पूरा देश रश्क़ करता था. विजय नाम से याद आया, एक विजय था, जिसको ग्यारह मुल्कों की पुलिस खोज रही थी और दूसरा विजय है जिसको देश के बैंक प्रबंधक खोज रहे हैं.

बहरहाल, मेरा मानना है कि घोटालों पर संसद में चर्चा कराना टाइम खोटी करना है। आजादी के बाद से संसद में 322 घोटालों पर चर्चा हो चुकी है, नतीजा क्या निकला, मैं आज भी जान नहीं पाया हूं।

यकीन मानिए, नतीजे आ भी गए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा. इस देश में 400 लोगों के पास चार्टड विमान हैं, 2985 परिवार अरबपति से भी अधिक हैं, देश के किसानों पर ढाई हज़ार करोड़ का कर्ज है और वह आत्महत्या करते हैं तो देश के 6 हजार उद्योगपतियों ने सवा लाख करोड़ का कर्ज ले रखा है. उनमें से कोई आत्महत्या नहीं करता.

पाठकों, घोटाले हुए हैं। यकीनन हुए हैं। यह भी पता है कि लिया किसने है? बस सुबूत नहीं हैं. और सुबूत मिल भी जाए तो क्या होगा?

चूहा दिल्ली में आजादी का जश्न देखने आएगा, बिल्ली पीछे सब चट कर जाएगी. कुछ बरस पहले एक योजना आयोग था. उसके उपाध्यक्ष भी थे. वह कहते थेः शहर के आदमी के लिए 32 रु. और गांव के आदमी के लिए 26 रु. रोजाना की आमदनी काफी है. उपाध्यक्ष महोदय औरंगजेब रोड (तब के) पर एक बंगले में रहते थे जिसकी कीमत इतनी थी कि अगर लॉन के घास के दाम भा लगाए जाते तो हर घास की कीमत 32 रु. से ज्यादा बैठती. अस्तु. आज सड़कें फटाफट तैयार हो रही हैं. इमारतें और मॉल्स चमचमा रहे हैं. दाल-टमाटर-प्याज की कीमत बढ़ने पर हो-हल्ला है लेकिन बढ़ी हुई कीमत किसान को नहीं मिलती. किसान अपनी पैदावार सड़क पर फेंक रहा है. वह सड़कों पर दूध उड़ेल रहा है. आजादी के मौके पर राजा की पालकी जाने वाली है. एलइडी बल्बों से रोशनायित सड़कें हीरे-मोती की तरह चमकती है. और इस हर मोती के पीछे घीसू का पसीना है.

आज आईचौक पर खड़े होकर एक शेर बहुत जोर से आ रहा हैः

न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से।


चलो. चखना निकालो यार. लगता है चढ़ गई.

Monday, August 28, 2017

टाइम मशीनः विद्यापति की जिद

#टाइममशीन #गंगा #एकदा #विद्यापति

चार कहार पालकी लिए जा रहे थे. पालकी में थे आखिरी सांसे गिन रहे मैथिल-कोकिल विद्यापति. गंगाभक्त विद्यापति अपने आखिरी दिन गंगातट पर बिताना चाहते थे. सो दुलकी चाल चल रहे कहार पालकी लिए सिमरिया घाट को जा रहे थे.

आगे-आगे पालकी लेकर कहरिया और पीछे-पीछे महाकवि के सगे-सम्बन्धी। अलसभोर से चलते-चलते सांझ ढल आई तो विद्यापति ने कहारों से पूछा: "गंगा और कितनी दूर हैं?"
"ठाकुरजी, करीब पौने दो कोस।" कहरियों ने जवाब दिया। महाकवि एकाएक बोल उठे: "पालकी यहीं रोक दो। गंगा यहीं आएंगी।"
"ठाकुरजी, गंगा यहां से दो कोस दूर हैं। वह यहां कैसे आएगी? धीरज धरिए, एक घंटे के अन्दर हमलोग सिमरियाघाट पहुंच जाएंगे।"
विद्यापति अड़ गएः "अगर एक बेटा जीवन के अन्तिम क्षणों में अपनी मां से मिलने इतनी दूर आ सकता है तो क्या गंगा पौने दो कोस भी न आएंगी?"
खैर, लोगों ने इसको विद्यापति का बुढ़भस समझा. लेकिन आश्चर्य! सुबह जब सब जगे तो देखा गंगा हहराती हुई वहां से कुछ ही दूर बह रही थी.
विद्यापति मुदित मन गा उठेः 
बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे
छोड़इत निकट नयन बह नीरे।।
विद्यापति ने वहीं प्राण त्यागे. लेकिन आज भी समस्तीपुर से थोड़ा आगे मऊबाजितपुर नाम की जगह पर गंगा अपनी मूल धारा से थोड़ा उत्तर खिसकी दिखती है.

Tuesday, August 8, 2017

टाइम मशीनः शिवः अमर्ष

सती के अथाह प्रेम में डूबे शिव उनकी बेजान देह लिए हिमालय की घाटियों-दर्रों में भटकते रहे. न खाने की सुध, न ध्यान-योग की. सृष्टि में हलचल मच गई, सूर्य-चंद्र-वायु-वर्षा सबका चक्र गड़बड़ हो गया.

तारकासुर ने हमलाकर स्वर्ग पर कब्जा कर लिया था. प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी थी. तारकासुर की अंत केवल शिव की संतान ही कर सकती थी, सो ब्रह्मा चाहते थे कि अब किसी भी तरह शिव का विवाह हो जाए. बिष्णु ने अपने चक्र से सती की देह का अंत तो कर दिया, लेकिन महादेव का बैराग बना रहा. 

चतुर इंद्र ने प्रेम के देवता कामदेव को बुलाया था. 

कामदेव जानते थे शिव को. उनकी साधना के स्तर को और उनके प्रचंड क्रोध को भी. इंद्र का आदेश था तो कामदेव ने डरते-डरते हां कर दी थी।
कामदेव कैलाश पहुंचे तो वहां का बर्फ़ीला वातावरण देखकर निराश हो गए. इस निर्जन में साधना-तपस्या तो की जा सकती है, प्रेम के लिए यह जगह उपयुक्त नहीं. कामदेव ने कैलाश के इस बर्फीले मौसम को वसन्त में बदल दिया. हल्की-हल्की बयार बहने लगी, पत्थरों की जगह फूल खिल गए, भौंरो की गुनगुनाहट गूंजने लगी, हवा में खुशबू तैरने लगी और पूरे माहौल में फगुनाहट चढ़ आया. नदियों का कल-कल बहता पानी, फूलों की क्यारियां...प्रेम के लिए ज़रूरी हर चीज पैदा कर दी थी कामदेव ने।

लेकिन कामदेव भूल गए थे शिव को कौन बांध सका है आजतक...जिसकी मरजी से हवाएं चलती हों, सूरज निकलता हो, चांद-सितारे जगमगाते हों, धरती घूमती हो, समंदर में लहरें उछाहें मारती हो, उसको कामदेव बांधने चले थे!

कामदेव ने अपने प्रेम की प्रत्यंचा पर पुष्पबाण चढ़ाकर शिव की तरफ मोड़ा ही था कि अचानक मौसम बदल गया. नदियों का पानी खौलने लगा, धरती में दरारें पड़ गई और उनसे लावा बहने लगा. भयानक भू-स्खलन हुआ. जोर के बवंडर में शिव की तीसरी आंख खुल गई थी।

पलभर में कामदेव की देह में आग लग गई और वह भस्म होकर राख बन गए. 

Friday, July 28, 2017

बिहारः क्या शरद पर आएगा वसंत?

नीतीश के पाला बदलने और आनन-फानन में शपथ-ग्रहण करके भाजपा के साथ सरकार बना लेने पर कुछ सवाल उठने लाजिमी है. पहला स्वाभाविक सवाल तो यही उठता है कि आखिर नीतीश प्रधानमंत्री द्वारा किए गए डीएनए वाले बिहारी अस्मिता पर चोट से आहत थे वह फिर से भाजपा की शरण में क्यों आ गए. सवाल है कि आखिर भाजपा ने नीतीश को अपने पाले में क्यों करना चाहा? क्या 2019 के लोकसभा में उसे बिहार में आधार खिसकने का इतना डर था? तीसरा सवाल है कि आखिर नीतीश के विरोधी माने जाने वाले और महागठबंधन से बाहर निकलने की मुखालफत करने वाले शरद यादव का क्या होगा?

चूंकि मोदी युग के उदय के बाद मोदी-शाह के अश्वमेघ यज्ञ में सिर्फ बिहार और दिल्ली विधानचुनाव ही असली कांटे साबित हुए हैं और बिहार का झटका ज्यादा बड़ा था जिसमें भारत की पिछड़ी जातियों के दो बड़े नेता शामिल थे और मंडल से जुड़े हुए थे. ऐसे में बिहार में मोदी की सत्ता स्वीकार्यता का एक विशेष अर्थ है और मोदी की सर्व-व्यापकता की तस्वीर बिना बिहार में एनडीए की सत्ता के पूरी नहीं होती थी. ऐसे में ये जरूरी था कि नीतीश कुमार को अपने पाले में लाया जाए और जिसके लिए वे तनिक-तनिक तैयार भी दिखने का संकेत कर रहे थे.

साथ ही ऑपरेशन बिहार इसलिए भी हड़बड़ी में जरूरी था क्योंकि लालू और नीतीश में जो मतभेद हो रहे थे, उसके बाद राजनीतिक गलियारों में ये कानाफूसी थी कि लालू, जद-यू के कुछ विधायकों पर भी निशाना साधने की तैयारी में थी. इसीलिए आनन-फानन में नीतीश ने इस्तीफा दिया और अगले दिन सुबह-सुबह फिर से शपथ ले ली!

नीतीश कुमार के पाला बदलने के सवाल के कुछ बेहद सामान्य उत्तर हैं, उनमें से एक है नीतीश भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने वाली अपनी चट्टानी छवि को नई ऊंचाईयों पर ले जाना चाहते थे. लेकिन यह हिमशैल का सिर्फ दिखने वाला सिरा है. असल में इसकी भीतरी वजहे और भी हैं. सूत्रों के हवाले से खबर है कि लालू प्रसाद ने नीतीश का तख्तापलट करने की तैयारी कर ली थी. इसके साथ ही जेडी-यू में टूट भी हो जाती. जाहिर है, नीतीश ज्यादा तेज निकले और उन्होंने ब्रह्मास्त्र चला दिया. नीतीश कुमार महागठबंधन में मुख्यमंत्री तो थे लेकिन उनकी हैसियत 80 के मुकाबले 71 विधायकों के साथ जूनियर पार्टनर की ही थी. भाजपा के साथ अब नीतीश पहले की तरह बड़े भैया हो जाएंगे.

हालांकि, बिहार भाजपा में हर कोई नए गठजोड़ से खुश नहीं है लेकिन सुशील मोदी एक बार फिर उप-मुख्यमंत्री बनकर प्रसन्नचित्त होंगे. दूसरी बात, उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रचंड जीत को नीतीश ने कायदे से पढ़ लिया है. यूपी में भाजपा को उन पार्टियों ने भी वोट दिया है जिसे समाज में दुर्बल जातियां कहा जाता है. बिहार में नीतीश भी उन्हीं जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. अगर 2019 में भाजपा यूपी की तरह बिहार में भी उन जातियों को अपने पाले में कर लेती तो नीतीश के पास जमापूंजी क्या रह जाती? क और वजह तेजस्वी यादव भी रहे. नहीं, उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप नहीं. नीतीश तेजी से सीखते तेजस्वी को पैर जमाते देख रहे थे और उनको विवादित करके छोटा कर देना भी एक मकसद रहा होगा.

दूसरी तरफ, भाजपा के लिए 2019 से भी फौरी जरूरत थी गुजरात के चुनाव. भाजपा गुजरात विधानसभा को खोने नहीं देने के लिए कितनी बेताब है इसका अंदाजा हालिया महीनों में वहां बढ़ गए प्रधानमंत्री के दौरों से लग जाता है. गुजरात में भाजपा के वोट बैंक रहे पटेल पार्टी से नाराज चल रहे हैं और सड़कों पर सरकार के खिलाफ पटेलों की उमड़ी भीड़ भाजपा के लिए अनिष्टसूचक प्रतीत हो रही थी. गलियारों में चर्चा थी कि हार्दिक पटेल के सिर पर नीतीश कुमार का हाथ था. अब यह महज संयोग नहीं होगा कि नीतीश कुमार उन्हीं कुर्मियों के नेता हैं, जिसे गुजरात में पटेल कहा जाता है. भाजपा को उम्मीद है कि इससे गुजरात में पटेलों के विरोध को एक हद तक साधा जा सकेगा. इस बात को भी संयोग नहीं माना जा सकता है कि राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार (और अब राष्ट्रपति) रामनाथ कोविंद कोली जाति के हैं, जिसकी तादाद गुजरात में करीब 18 फीसदी है. नीतीश के साथ कोविंद के मीठे संबंध रहे हैं.

अब बच रहे शरद यादव. शरद यादव के बारे में बिना हील-हुज्जत के यह माना जा सकता है कि वह अपने सियासी करियर के आखिरी दौर से गुजर रहे हैं. हालांकि शरद महागठबंधन तोड़ने की मुखालफत कर रहे थे लेकिन उनके राजनीतिक जीवन में वसंत तभी आएगा जब वह भाजपा के साथ जद-यू के इस गठजोड़ को मान लेंगे. जद-यू के अंदरूनी सूत्रों का मानना है कि केंद्र सरकार में शरद यादव के लिए कबीना मंत्री के पद का प्रस्ताव है और शरद इसके लिए सहमत भी हैं.

वैसे राजनीतिक पंडित इस बात के कयास लगा रहे हैं कि जद-यू के 18 मुस्लिम और यादव विधायक टूट के लिए तैयार हैं. लेकिन वैधानिक टूट के लिए 24 विधायकों का होना जरूरी है. अगर यह टूट हुई और कुछ न्य विधायकों को जोड़कर लालू सरकार बनाने का दावा भी करें तो भी शरद यादव को राज्यसभा सीट गंवानी पड़ेगी. उनको दोबारा राज्यसभा में भेजना कठिन होगा. आरजेडी ने मायावती को राज्य सभा में भेजने का वचन पहले ही दे दिया है. ऐसे में बस एक और नाम ख्याल में आता है ममता बनर्जी का, जो मायावती को राज्य सभा भेजने पर हामी भर सकती हैं. लेकिन यह गणित सियासी खामख्याली भी हो सकती है, क्योंकि विश्वस्त सूत्र दावा कर रहे हैं कि शरद जल्दी ही कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ ले सकते हैं. दूसरी तरफ, आरजेडी के कई विधायक तेजस्वी का इस्तीफा चाहते थे और इस टूट से नाराज होकर उन्होंने गुरुवार की बैठक में मौजूद रहना मुनासिब नहीं समझा. एक और कोण कांग्रेस का है और अगर जेडी-यू में कोई टूट होती है तो कांग्रेस में भी तोड़-फोड़ होगी. अभी भाजपा 2019 की तरफ देख रही है तो नीतीश की नजर उससे आगे 2020 (बिहार विधानसभा चुनाव) पर भी होगी. कुल मिलाकर मामला दिलचस्प है, कुछ-कुछ अंकगणित और ज्यामिति के मिले-जुले समीकरण जैसा.

मंजीत ठाकुर

Tuesday, July 25, 2017

टाइम मशीनः अनुरक्ति


शिव सीरीजः अनुरक्ति

गौरी के लिए रात-दिन बराबर हो गए. न नींद, न भूख-प्यास. आंखों में आंसू भरे रहते थे और हृदय में शिवजी। कभी कन्द-मूल-फल का भोजन होता, कभी जल और कभी तो कई-कई दिनों का उपवास. प्रेम में पड़ी गौरी के बचपने ने उनको उमा बना दिया तो भोजन के लिए पत्तों का भी त्याग करके वह ‘अपर्णा’ बन गईं.

नीद न भूख पियास सरिस निसि बासरु/नयन नीरु मुख नाम पुलक तनु हियँ हरु।।
कंद मूल फल असन, कबहुँ जल पवनहि/सूखे बेल के पात खात दिन गवनहि।।


यह कमसिन उम्र और ऐसी घोर तपस्या. एक पैर पर खड़ी गौरी ने देखा एक साधु सामने खड़े थे, ये किसके प्यार में पड़ गई हो तुम बेटी! न रहने का ढंग, न खाने का शऊर, खुद क्या खाएगा तुम्हें क्या खिलाएगा? भांग-धतूरा?

एकउ हरहिं न बर गुन कोटिक दूषन/नर कपाल गज खाल ब्याल बिष भूषन।।
कहँ राउर गुन सील सरूप सुहावन/कहाँ अमंगल बेषु बिसेषु भयावन।

न रूप, न गुण...सिर के सारे बाल सफेद...देह में राख मली हुई..हुंह अघोरी कहीं का...गौरी की आंखें क्रोध से लाल हो गईं. लेकिन साधु से कुछ न बोलते हुए वह कहीं और तपस्या करने जाने लगीं. लेकिन यह क्या, वही साधु सामने रास्ता रोककर खड़ा था. गौरी को गुस्सा आ गयाः क्यों जी, बड़े ढीठ हो। इतनी बातें कहीं, फिर भी समझ नहीं आता? किसने भेजा है तुम्हें, मुझे बहकाने के लिए?

साधु ने मुस्कुराते हुए बांहे फैला दीं। गौरी का गुस्सा बांध तोड़ने के लिए बेताब हो गयाः अरे दुष्ट साधु, तुम बातों से नहीं मानोगे? जानते नहीं मन ही मन मैं शिव को पति मान चुकी हूं और मेरे सामने ऐसी ओछी हरकत कर रहे हो? इससे पहले कि मैं तुम्हें शाप देकर भस्म कर दूं, निकलो यहां से। साधु मुस्कुरा उठे थे। लेकिन साधु को तुरंत अपनी गलती का अहसास हुआः साधु बने शिव ने खुद को देखा...और फिर असली रूप में आए. प्यार से पुकारा था उन्होंनेः देवि!

गौरी ने सिर उठाकर देखा तो सामने शिव...उनकी पूरी दुनिया. उनके जीवन का लक्ष्य़...वह ख़ुद. शिव कौन? खुद गौरी ही तो!

गौरी और शिव एक हो गए. प्रेम की बेल हरी हो गई.

Friday, July 21, 2017

दरभंगा में हवाई अड्डा अभी हवाई किला है

आज दरभंगा से संभावित हवाई सेवा पर लिखूंगा जिसे हाल ही में "उड़ान" योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है, हालांकि अभी सिर्फ सहमति पत्र पर दस्तखत हुए हैं और मीलों लंबा सफर तय करना है. भारत सरकार की उड़ान योजना क्षेत्रीय कनेक्टीविटी के लिए है.

बहुत सारे अन्य एयरपोर्ट की तरह ही दरभंगा एयरपोर्ट भी रक्षा मंत्रालय के अतर्गत आता है जिसके मंत्री अभी अरुण जेटली हैं. जेटली का नीतीश कुमार से मधुर संबंध है और दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद से कटु. लेकिन दरभंगा से सन् 2014 में JD-U के लोकसभा प्रत्याशी रहे Sanjay Jha, अरुण जेटली के नजदीकी माने जाते हैं. बिहार सरकार के सूत्र बताते हैं कि ये भी एक वजह थी कि दरभंगा एयरपोर्ट पर रक्षा मंत्रालय ने तत्काल NOC दे दिया.

(यों दो साल पहले जब सोशल मीडिया पर दरभंगा एयरपोर्ट के लिए अभियान चल रहा था तो उस समय कीर्ति आजाद कुछ सांसदों संग PM से मिलने भी गए थे लेकिन बाद में वे BJP में खुद ही अलग-थलग पड़ते गए).
फिलहाल जिस सहमति पत्र पर दस्तखत हुए हैं उसमें दरभंगा से पटना, गया और रायपुर पर सहमति बनी है. चूंकि इस बार नॉन-मेट्रो सिटी से ही कनेक्टिविटी की योजना थी, तो उसमें पटना, गया, रायपुर, बनारस और रांची आ सकते थे. अभी शुरू के तीन पर सहमति बनी है. रायपुर का नाम जुड़वाने में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की व्यक्तिगत रुचि थी, उन्होंने बैठक में कहा कि 'रायपुर और छत्तीसगढ़ में मिथिला समाज के लाखों लोग रहते हैं, कनेक्टिविटी से उनका भला होगा'. रही बात रांची और बनारस की तो अभी मंत्रालय की योजना में वो नहीं था, आगे उस पर विचार किया जा सकता है.

जब दो साल पहले हमारे ढेर सारे मित्र सोशल मीडिया और अखबारों के माध्यम से दरभंगा से हवाई सेवा शुरू करवाने के लिए अभियान-रत थे तो उस समय मैंने JD-U नेता संजय झा से इस मामले में पैरवी करने के लिए आग्रह किया था. वे सहमत तो थे लेकिन व्यवहारिकता और नौकरशाही की अड़चन को लेकर सशंकित थे. उन्होंने कहा था कि बेहतर हो कि राजधानी जैसी कुछ सुपरफास्ट ट्रेन या ऐसी ही कनेक्टिविटी का कुछ इंतजाम किया जाए.

लेकिन भारत सरकार जब "उड़ान" योजना लेकर सामने आई तो दरभंगा के लिए संभावना अचानक प्रकट हो गई. सोशल मीडिया में हमारे अभियान से उस समय सरकार के कान पर तो जूं नहीं रेंगी लेकिन समाज में कुछ हलचल जरूर मची. लोग तो पहले सोचते तक नहीं थे, उन्हें लगता था कि यह अभिजात्य माध्यम है, जिसका विकास से कोई लेनादेना नहीं. हाल यह था कि उस इलाके में एक जमाने में विकास-पुरुष के तौर पर सम्मानित एक प्रख्यात कांग्रेसी नेता के सुपुत्र विधायकजी ने तो यहां तक कहा कि दरभंगा वाले बस में ही बैठने की सलाहियत सीख लें,यही बहुत है!

दरभंगा एयरपोर्ट का रनवे बिहार में सबसे बड़ा है, पटना से भी बड़ा. महाराज दरभंगा का बनवाया हुआ है. छोटा-मंझोला विमान अभी भी उतर सकता है, अगर 2000 फीट रनवे और लंबा हो जाए तो भविष्य के लिए भी, बड़े विमानों के लिए भी पक्की व्यवस्था हो जाएगी. दरअसल, किसी शहर से विमानन सुविधा वन-टाइम डील होता है. हुआ तो हुआ, नहीं तो बीस-तीस साल नहीं होता. मनीष तिवारी जब केंद्र में मंत्री बने तो दिल्ली-लुधियाना शुरू हुआ, सुना कि उनके हटने के बाद बंद हो गया. इलाहाबाद में एक जमाने में था, फिर बंद हुआ और फिर जाकर मुरलीमनोहर जोशी के समय शुरू हुआ. यानी जिसकी लाठी, उसकी भैंस. वो तो भला हो उड़ान का जो दरभंगा जैसे शहर इसमें शामिल हुए.

दरभंगा एयरपोर्ट मौजूदा हाल में भी उड़ान योजना के लिए फिट था लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दरभंगा एयरपोर्ट के रनवे विस्तार के लिए जमीन अधिग्रहण हेतु सहमत हो गए हैं, ताकि भविष्य में बड़े विमान भी उतर सकें. उसके लिए पचास एकड़ जमीन चाहिए और उन्होंने कैबिनेट सचिवालय के प्रमुख सचिव ब्रजेश मेहरोत्रा को इस बाबत निर्देश दे दए है.

लेकिन इस हवाईअड्डे में कई पेंच हैं और इसमें इतनी दौड़-धूप या कहें कि ब्यूरोक्रेटिक लाइजनिंग की जरूरत है जिसके लिए ऊर्जावान नेतृत्व चाहिए. ये बात जगजाहिर है कि दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद की हवाईअड्डे में कितनी दिलचस्पी है और अगर होगी भी तो अरुण जेटली उनकी कितनी सुनेंगे! दरभंगा डिवीजन के अन्य दो सांसद हुकुमदेव नारायण यादव और बीरेंद्र चौधरी या तो हवाईसेवा के प्रति उदासीन हैं या इसका महत्व नहीं समझते. हां, एक बार बीरेंद्र चौधरी ने संसद में इसे उठाया था. लेकिन उस
समय 'उड़ान' जैसी कोई योजना नहीं थी. इस बार योजना तो अनुकूल है लेकिन पेंच नौकरशाही का है और वो पहाड़ जैसा है. देखिए जिस सहमति पत्र पर दस्तखत हुए हैं, उसमें किन-किन चीजों की आवश्यकता बताई गई है:
1. एयर हेड-क्वार्टर से एनओसी लेना(यानी फिर से डिफेंस मिनिस्ट्री के बाबू और वायुसेना अधिकारियों की तेल-मालिश करना)
2. AAI को एयर हेडक्वार्टर से एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करना होगा(बाबुओं को इसके लिए फिर से मनाना)
3. सिविल इन्क्लेव के लिए AAI ने जमीन अधिग्रहण करने का आग्रह किया है (झंझट का काम है. हालांकि जमीन पचास एकड़ ही चाहिए लेकिन ये "आजकल" मजाक नहीं है. बिहार सरकार के सबसे बड़े बाबू से लेकर जिलाअधिकारी, पुलिस कप्तान, मुआवजा, वित्त विभाग इत्यादि शामिल हैं)
4 रनवे एज लाइटिंग
5 एप्रन और टैक्सी वे का निर्माम
7 NA AIDS(ILS, VOR) का इंस्टालेशन- यानी रेडियो नेविगेशन सिस्टम, इस्ट्रूमेंट लैंडिंग सिस्टम इत्यादि.
और ये जितने काम हैं, उसमें करीब 2000 करोड़ रुपये का खर्च है, क्योंकि 'उड़ान' स्कीम के तहत* बिहार सरकार को इसके सकल खर्च या छूट का 80 फीसदी वहन करना है! अब असली पेंच समझिए कि एक गरीब राज्य का खजाना जिसका बजट सन् 2016-17 के लिए महज 1.44 लाख करोड़ था वह सिर्फ दरभंगा हवाईअड्डे के लिए उसमें से दो हजार करोड़ निकाल दे तो पटना के बाबू लोग कितना नखरा करेंगे! (* उड़ान योजना में VGF यानी वायवेलिटी गैप फंड के तहत घाटे की भरपाई और सुविधाओं के निर्माण में केंद्र और राज्य का हिस्सा 20 औ 80 फीसदी का है.)

विद्वानों को मालूम है कि महज सहमति पत्र से कुछ नहीं होता, सहमति पत्र तो ऐसे-ऐसे हैं जो तीस-तीस साल से धूल फांक रहे हैं-उन पर काम आगे हुआ ही नहीं-फाइल आगे बढ़ी ही नहीं. असली बात है कि क्रियान्वयन होना और एक पिछड़े इलाके में इतने बड़े प्रोजेक्ट को जमीन पर उतार देना. 

यह पोस्ट सिर्फ दरभंगा एयरपोर्ट पर केंद्रित है, पूर्णिया, सहरसा, रक्सौल और किशनगंज का अलग संदर्भ है. लंबा हो जाएगा. आज के समय में एयरपोर्ट का क्या महत्व है, इस पर पोस्ट लिखना जरूरी नहीं. आप ये समझिए कि किसी पूंजीपति या सरकारी बाबू को अगर 20-25 करोड़ का भी प्रोजेक्ट लेकर उत्तर बिहार जाना हो तो वो ट्रेन से नहीं जाएगा. मैं खुद ही साधारण सी नौकरी में हूं, ट्रेन में 25-30 घंटे की सफर से बचता हूं.

मैंने ब्लॉग के जमाने में लिखा था कि ईस्ट-वेस्ट NH कॉरीडोर को मधुबनी-दरभंगा से होकर बनवाने में झंझारपुर और सहरसा के सांसद देवेंद्र प्र. यादव और दिनेश यादव का बड़ा रोल था, उन्होंने उसके लिए जमकर वाजपेयी सरकार में लॉबी की थी. नतीजतन वो मिथिला की लाइफलाइन साबित हुई.

ऐसे में दरभंगा से अगर वाकई 'उड़ान' होता है, तो बधाई के पात्र नीतीश कुमार होंगे, मोदी सरकार होगी और संजय झा होंगे जो इसमें व्यक्तिगत रुचि ले रहे हैं. दरभंगा और उत्तर बिहार के उस इलाके के लोगों को चाहिए कि वो दबाव और समर्थन बनाए रखे. वहां के मौजूदा सांसद-गण भी कुछ जोर लगाएं तो यह जल्दी फलीभूत हो जाएगा. सिर्फ हवाईअड्डा ही क्यों, रेलवे और अन्य योजनाएं भी फलीभूत हो जाएंगी.

--अपने फेसबुक वॉल पर लिखा सुशांत झा का लेख.

Wednesday, July 19, 2017

टाइम मशीनः शिवः खंड चारः भस्मांकुर

 भस्मांकुर 


बारात शहर के ठीक बीचों-बीच बाज़ार से गुज़र रही थी. बारात में, भूत-प्रेत- राक्षस- किन्नर-चुड़ैलें- किच्चिनें...बैताल, ब्रह्मराक्षस हैं...कोई दांत किटकिटाता...कोई शंख बजाता...कोई दुंदुभी पीटता...

गौरा तोर अंगना/ बड़ अजगुत देखल तोर अंगना
एक दिस बाघ-सिंह करे हुलना/ दोसर बरद छह सेहो बऊना...
गौरा तोर अंगना



उधर, महल में बड़ी गहमा-गहमी थी। बारात दरवज्जे पर आ गई है. गौरी की सखियां बेहद हैरत में थीः दूल्हा! मत मूछो दिदिया। पूरी देह में राख, माला की जगह नाग, बाल तो जाने कब से नहीं धोए...रथ की जगह बैल पर सवार हैं दूल्हे शिव.

सखियां ठठाकर हंस पड़ीं. लेकिन गौरी की आंखों में खुशियां दमक रही थीं. शिव को जो नहीं जानता, वह उनके रूप पर जाएगा, जो जानता है वह मन को पढ़ेगा. मेरे शंकर! मेरे भोलेः गौरी का मन हो रहा था वह भी झरोखे में जाकर नंदी बैल पर सवार भोलेनाथ को देखे,
सखियां गा उठी थीं,
शिव छथि लागल दुआरी, गे बहिना,
शिव छथि लागल दुआरी
इंद्र चंद्र दिग्पाल वरूण सब,
चढ़ि-चढ़ि निज असवारी गे बहिना
शिव छथि लागल दुआरी...

पिता पर्वतराज ने शिव से उनका वंश पूछा था. शिव कहीं शून्य में ताकते चुपचाप बैठे रहे. फुसफुसाहटें तेज़ हो गईं. सन्नाटा खिंच गया।

गौरी की मां मैना ने नारद को टहोका दियाः अब कुछ बोलते क्यों नहीं? बताइए न पहुना के खानदान के बारे में?

नारद ने कहाः ‘पर्वतराज, भगवान महादेव स्वयंभू हैं. इन्होंने खुद की रचना की है. इनका एक ही वंश है – ध्वनि. प्रकृति में अस्तित्व में आने वाली पहली चीजः ध्वनि... यह ध्वनि है- ओम्...

नारद ने कहा ओम्...और उसके साथ ही पूरी प्रकृति से आवाज़ आई
ओम...हवा ने, नदियो ने, पेड़ों ने, समंदर ने, पत्थरों ने, चिड़ियो ने, तितलियो ने...सबने एक साथ दोहरायाः ओम्...

पर्वतराज समझ गए. वक्त जयमाला का आ पहुंचाः लेकिन गौरी
एक पल के लिए रुकी थी. जयमाला से ठीक पहले गौरी ने शिव के
सामने अपनी हथेली खोल दी थी. उनकी हथेली में थोड़ी राख थी।
कामदेव की देह की राख.

शिव मुस्कुराए और उन्होंने वह राख चुटकियों मे उठाकर विवाह मंडप के नीचे डाल दियाः सबने देखा, वहां एक अंकुर निकल आया था.

फिर शिव ने सबको कहाः कामदेव बिना शरीर जगत के हर जीव में मौजूद रहेंगे...प्रेम के रूप में. गौरी ने शिव को और शिव ने गौरी को जयमाला पहनाई तो गणों ने जयघोष कियाः हर-हर महादेव!