Monday, August 28, 2017

टाइम मशीनः विद्यापति की जिद

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चार कहार पालकी लिए जा रहे थे. पालकी में थे आखिरी सांसे गिन रहे मैथिल-कोकिल विद्यापति. गंगाभक्त विद्यापति अपने आखिरी दिन गंगातट पर बिताना चाहते थे. सो दुलकी चाल चल रहे कहार पालकी लिए सिमरिया घाट को जा रहे थे.

आगे-आगे पालकी लेकर कहरिया और पीछे-पीछे महाकवि के सगे-सम्बन्धी। अलसभोर से चलते-चलते सांझ ढल आई तो विद्यापति ने कहारों से पूछा: "गंगा और कितनी दूर हैं?"
"ठाकुरजी, करीब पौने दो कोस।" कहरियों ने जवाब दिया। महाकवि एकाएक बोल उठे: "पालकी यहीं रोक दो। गंगा यहीं आएंगी।"
"ठाकुरजी, गंगा यहां से दो कोस दूर हैं। वह यहां कैसे आएगी? धीरज धरिए, एक घंटे के अन्दर हमलोग सिमरियाघाट पहुंच जाएंगे।"
विद्यापति अड़ गएः "अगर एक बेटा जीवन के अन्तिम क्षणों में अपनी मां से मिलने इतनी दूर आ सकता है तो क्या गंगा पौने दो कोस भी न आएंगी?"
खैर, लोगों ने इसको विद्यापति का बुढ़भस समझा. लेकिन आश्चर्य! सुबह जब सब जगे तो देखा गंगा हहराती हुई वहां से कुछ ही दूर बह रही थी.
विद्यापति मुदित मन गा उठेः 
बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे
छोड़इत निकट नयन बह नीरे।।
विद्यापति ने वहीं प्राण त्यागे. लेकिन आज भी समस्तीपुर से थोड़ा आगे मऊबाजितपुर नाम की जगह पर गंगा अपनी मूल धारा से थोड़ा उत्तर खिसकी दिखती है.

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